महाराष्ट्र, हरियाणा के विधानसभा चुनाव नतीजों ने अन्य राज्यों में भाजपा की सरकारों की आंखें खोल दीं

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RGA न्यूज़ मुंबई महाराष्ट्र

जमीनी स्तर पर सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में मंत्रीगण कुछ खास रुचि नहीं लेते हैैं। इसलिए हरियाणा और महाराष्ट्र में आठ-आठ मंत्री चुनाव हार गए।...

[महाराष्ट्र, हरियाणा विधानसभा और 17 राज्यों एवं केंद्रशासित क्षेत्रों की 51 विधानसभा और दो लोकसभा सीटों के नतीजे राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों और सामान्य जनता के बीच चर्चा के केंद्र में हैैं। हरियाणा के नतीजों को लेकर ज्यादा चर्चा होना स्वाभाविक है। 1 नवंबर 1966 को गठित हरियाणा में पहला विधानसभा चुनाव 1967 में चुनाव हुआ था। तब से कुछ अपवादों को छोड़कर वहां कांग्रेस पार्टी का वर्चस्व रहा। 2014 में मोदी लहर में वह वर्चस्व टूट गया। यहां पहली बार भाजपा की सरकार तो बनी ही, एक गैर-जाट मनोहरलाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया गया। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि हरियाणा की राजनीति में आज तक कोई भी मुख्यमंत्री रहते हुए अगला कार्यकाल नहीं पा सका है।

भाजपा को हरियाणा में 2014 के मुकाबले सीटें कम मिल

यदि मनोहरलाल पुन: मुख्यमंत्री बनते हैं जो कि तय दिख रहा है तो यह भी एक इतिहास ही होगा। ज्यादातर लोग केवल राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त सीटों पर ही ध्यान देते हैैं, लेकिन जनसमर्थन का एक और पहलू मत-प्रतिशत होता है। भाजपा को हरियाणा में 2014 के मुकाबले सात सीटें जरूर कम मिली हैं, लेकिन उसे 3.3 प्रतिशत ज्यादा मत मिले हैं। स्पष्ट है कि भाजपा का राज्य में जनाधार बढ़ा है। यह भी रेखांकित किया जाना जरूरी है कि हरियाणा की छह सीटों पर हार-जीत 2000 से कम वोटों से हुई। तीन सीटों पर तो 1000 से कम मतों से हार-जीत हुई।

कांग्रेस ने हरियाणा में 2014 के मुकाबले दोगुनी जीतीं

नि:संदेह इसका यह मतलब नहीं कि खट्टर सरकार में सब कुछ ठीक-ठाक रहा। ऐसा रहा होता तो कांग्रेस ने हरियाणा में अच्छा प्रदर्शन नहीं किया होता। उसने 2014 की 15 सीटों के मुकाबले दोगुनी अर्थात 31 सीटें जीतीं। कृषि-प्रधान हरियाणा में खट्टर सरकार द्वारा किसानों के मसले अपेक्षित गंभीरता से हल नहीं किए गए, चाहे वह फसलों की खरीद का मसला रहा हो या समर्थन मूल्य का अथवा पराली की समस्या। इसी के साथ यह भी स्वीकार करना होगा कि हरियाणा की सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति भी उसकी कुछ समस्याओं के लिए जिम्मेदार है। राजनीतिक नफा-नुकसान के कारण कोई भी सरकार हस्तक्षेप करने से कतराती है।

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष समेत 8 मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सुभाष बराला को 50 हजार मतों से और साथ ही हरियाणा के 10 मंत्रियों में से 8 को हराकर जनता ने खट्टर सरकार को यही संदेश दिया कि पार्टी और सरकार, दोनों ही स्तरों पर बदलाव और सुधार की बेहद जरूरत है।

‘जाट-बेल्ट’ में कांग्रेस का वर्चस्व रहा और भाजपा की करारी शिकस्त

‘जाट-फैक्टर’ प्रदेश की राजनीति में हमेशा महत्वपूर्ण रहा है और नेतृत्व में जाटों को सर्वोपरि न रखना भी उनकी भाजपा से नाराजगी का कारण रहा। इसीलिए सोनीपत से लेकर सिरसा तक ‘जाट-बेल्ट’ में कांग्रेस का वर्चस्व रहा और भाजपा की करारी शिकस्त हुई और वह भी तब जब यहां कई जगह भाजपा के प्रत्याशी जाट ही थे। कुछ महीने पूर्व लोकसभा चुनावों में जब जाट नेतृत्व का मुद्दा नहीं था तब भाजपा ने जाट-बेल्ट में अपना दबदबा कायम रखा था।यह देखना मनोरंजक होगा कि पार्टी आगे कैसे जाट और गैर-जाट के बीच समन्वय करती है? यही भाजपा और हरियाणा की भावी राजनीति को परिभाषित करेगा, लेकिन हरियाणा में मात्र 11 महीने पुरानी दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी (जजपा) की 10 सीटों की अप्रत्याशित जीत प्रदेश की राजनीति में एक नए खिलाड़ी का संकेत दे रही है। इसी के प्रतिकूल मीडिया और सोशल मीडिया में उपस्थिति के बावजूद योगेंद्र यादव की स्वराज्य इंडिया कोई प्रभाव नहीं दिखा सकी।

महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना को 2014 की अपेक्षा कम सीटें मिलीं

महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना ने गठबंधन कर चुनाव लड़ा और कुछ अपवादों को छोड़ साथ-साथ नजर आईं। उनकी विजय भी हुई, लेकिन 2014 की अपेक्षा कुछ कम सीटें मिलीं। हालांकि चुनावों के पूर्व शरद पवार की पार्टी राकांपा से जिस तरह भाजपा की ओर भगदड़ देखी गई उससे ऐसा लग रहा था कि महाराष्ट्र में पवार का अस्त निकट है, लेकिन उम्र की इस दहलीज पर भी उन्होंने जिस तरह धुआंधार चुनाव प्रचार किया और किसानों की समस्याओं, आर्थिक मंदी, बेरोजगारी आदि मुद्दों को शिद्दत से उठाया वह काबिले तारीफ रहा। इतना ही नहीं, उन्होंने उन सभी की हार सुनिश्चित करने की भी रणनीति बनाई जो राकांपा छोड़कर चले गए थे। इनमें छत्रपति शिवाजी के वंशज भी शामिल हैैं।

राकांपा कांग्रेस ने 2014 के मुकाबले अधिक सीटें जीतीं

2014 के मुकाबले 13 सीटें अधिक जीत कर 54 सीटों के साथ राकांपा कांग्रेस की 44 सीटों से काफी आगे निकल गई। इस प्रकार महाराष्ट्र की राजनीति में पवार का पुन: अभ्युदय हुआ। महाराष्ट्र की राजनीति में वैसे तो तस्वीर साफ है, लेकिन शिवसेना के अपने गुप्त दांव हैं। वह स्वयं को सदैव एक ‘किंगमेकर’ की भूमिका में रखना चाहती है। महाराष्ट्र में पूर्ण बहुमत के लिए 145 सीटें चाहिए होती हैैं।

कांग्रेस और राकांपा को शिवसेना का साथ मिल जाए तो गैर-भाजपा सरकार बन सकती है

कांग्रेस और राकांपा को मिला कर 100 सीटें ही हैैं। यदि उसे शिवसेना की 54 सीटें मिल जाएं तो राज्य में गैर-भाजपा सरकार बन सकती है। इसे हल्के में इसलिए नहीं लिया जा सकता, क्योंकि शिवसेना ने भाजपा को अनेक शर्तों से बांध रखा है।

शिवसेना भाजपा से 50-50 फीसद की हिस्सेदारी चाहती है

शिवसेना एक तो फड़नवीस सरकार में 50-50 प्रतिशत की हिस्सेदारी चाहती है और यह भी कि मुख्यमंत्री ढाई वर्ष भाजपा का और ढाई वर्ष शिवसेना का हो। वह आगामी बीएमसी के चुनावों में अग्रणी भूमिका को लेकर भी प्रतिबद्ध है। शिवसेना मोदी मंत्रिमंडल में और स्थान चाहती है। इसके अलावा वह लोकसभा का उपसभापति पद भी चाहती है। उसकी यह चाहत भाजपा के लिए समस्या बना सकती है।

महाराष्ट्र में पवार के साथ-साथ ‘ठाकरेवाद’ का भी अभ्युदय

जो भी हो, महाराष्ट्र में पवार के साथ-साथ ‘ठाकरेवाद’ का भी अभ्युदय देखा जा सकता है। कांग्रेस की भी इसमें दिलचस्पी हो सकती है कि पवार-ठाकरे के रूप में क्षेत्रीय शक्तियों को जोड़ कर राज्य की राजनीति से भाजपा को बाहर किया जाए, भले ही उसमें उसका नुकसान हो। यह नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव पूर्व गठबंधन के बावजूद शिवसेना और भाजपा ने एक-दूसरे को पीछे धकेलने में कोई कमी नहीं छोड़ी। संभवत: आरएसएस ने भी भाजपा के बागियों की जीत में अहम भूमिका निभाई, अन्यथा देवेंद्र फड़नवीस के शहर में भाजपा करीब 50 प्रतिशत सीटें हारती नहीं।

हरियाणा की ही तर्ज पर महाराष्ट्र में भी आठ मंत्री चुनाव हारे

महाराष्ट्र में भाजपा के 15 बागी विधायक बन गए हैैं। भाजपा की विदर्भ में हार नितिन गडकरी के रोष और चीनी-पट्टी पश्चिम-महाराष्ट्र में खराब प्रदर्शन मराठा की नाराजगी की वजह से संभव है, लेकिन हरियाणा की ही तर्ज पर महाराष्ट्र में भी आठ मंत्री हार गए जो पुन: रेखांकित करता है कि जमीनी स्तर पर सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में मंत्रीगण कुछ खास रुचि नहीं ले रहे हैैं।

अन्य राज्यों में भी भाजपा के लिए चुनौती है

यह बात उन सभी राज्यों में भी लागू होती है जहां भाजपा की सरकारें हैं। लोग मोदी से खुश हैैं, लेकिन शासन और शुचिता के जो प्रतिमान उन्होंने स्थापित किए उनसे राज्यों में भाजपा सरकारों के मंत्री दूरी बनाए हुए हैं। यह भाजपा के लिए एक चुनौती है। उसे इस चुनौती का सामना गंभीरता से करना होगा। अगर इसमें ढिलाई बरती गई तो विपक्ष उस पर भारी पड़ सकता है।

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