कान पकड़कर बोले मजदूर, कभी नहीं जाएंगे बाहर मजदूरी के लिए

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अपने घर लौटने की फिक्र में यहां ठहरे मजदूर अब अपने घर ही रहकर मजदूरी करना पसंद करेंगे। कोरोना जैसी आपदा आने पर मजदूरों को अपना आशियाना बहुत याद आया। करीब 40 दिन तक उत्तराखण्ड के अलग-अलग ज़िलो में बने आश्रय स्थल में प्रवासी मजदूरों को दिन-रात अजीब सा डर सताए रहता था। उनको यह पता नही था कि वह कब और कैसे घर पहुंचेंगे। ज्यादातर लोग लॉक डाउन होने के बाद पैदल ही अपने घर के लिए निकल पड़े थे। इसमे अधिकांश मजदूर नवाबगंज के गांव पहरापुर के हैं जो परिवार के साथ पूर्णागिरि मेले में चाट टिक्की बेचने के लिए गए थे।

पेट की आग बुझाने के लिए दो वक्त की रोटी का इंतज़ाम करने के लिए प्रदेश के अलग-अलग ज़िलो के मजदूर उत्तराखण्ड के विभिन्न जिल़ो में मजदूरी कर रहे थे। मजदूरी में उन्हे इतना नही बच पाता था कि वह सही से अपना रह गुज़र कर पाते। मजदूरों के रहने का इंतज़ाम या तो ठेकेदार करते थे या फिर मजदूर किराए पर रहते थे। पूरी जिन्दगी मजदूरी करते हुए मजदूरों के पास इतना पैसा तक नही हो पाया कि वह एक झोपड़ी भी बना पाते। कोरोना जैसी महामारी आई तो उन्हे लॉक डाउन जैसे बंद का जीवन में पहली बार सामना करना पड़ा। लॉक डाउन होने पर उत्तराखण्ड में फंसे मजदूरों को अंधकार दिखाई पड़ रहा था। भूखे प्यासे रहने के बाद कुछ दिनो के बाद उत्तराखण्ड सरकार ने आश्रय स्थल बनाकर ठहराया, जहां उनके लिए खाने और ठहरने की व्यवस्था की गई।

मजदूरों का कहना है कि स्क्रीनिंग के बाद उनका हर तीसरे दिन मेडीकल चेकअप होता था। आश्रय स्थल पर उन्हे क्वारंटाइन भी किया गया था। इन मजदूरों में नवाबगंज के 40 परिवार भी शामिल हैं जो हर साल पूर्णागिरि मेले में चाट का ठेला लगाते हैं। इन परिवारों में छोटे बच्चो और महिलाओं की संख्या ज्यादा है। मजदूरों का कहना है कि जैसे ही वह पूर्णागिरि पहुंचे उनके पहुंचने के दो दिन बाद ही लॉक डाउन हो गया। काम बंद होने से वह वहां पर बुरी तरह फंस गए। करीब 40 दिन तक वहां फंसे रहने पर घर की चिंता सताने लगी।

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