डूबते को तिनके का सहारा जैसा ही है यहां

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RGA न्यूज़ देहरादून उत्तराखंड

ये 21वीं सदी का उत्तराखंड है। राजधानी देहरादून में फर्राटा भरती जिंदगी को देख अहसास ही नहीं होता कि यहां से महज तीन सौ किलोमीटर दूर तस्वीर बदल जाती है। ..

देहरादून:-  ये 21वीं सदी का उत्तराखंड है। राजधानी देहरादून में फर्राटा भरती जिंदगी को देख अहसास ही नहीं होता कि यहां से महज तीन सौ किलोमीटर दूर तस्वीर बदल जाती है। पिछले दिनों उत्तरकाशी जिले के मोरी ब्लाक का सुदूरवर्ती गांव जीवाणु सड़क से जुड़ गया। गांव तक पहली बार बस पहुंची तो यह मौका किसी त्योहार से कम नहीं था। ग्रामीण ढोल-दमाऊं और रणसिंघा के साथ ही फूल मालाएं लेकर सड़क पर खड़े होकर बस का इंतजार करते रहे।

बस के पहुंचते ही जमकर जश्न हुआ। तांदी नृत्य कर ग्रामीणों ने खुशियां मनाईं। इससे पहले ऐसा ही नजारा पिथौरागढ़ जिले में भी देखने को मिला था। बात सिर्फ इतनी ही नहीं है, कुछ माह पहले देहरादून से स्थानांतरित एक चिकित्सक श्रीनगर गढ़वाल पहुंचे तो उनका स्वागत भी देखने लायक था। दरअसल, दरकते पहाड़ों पर फिसलती जा रही जिंदगी के लिए ये सब डूबते को तिनके का सहारा जैसा ही हैं। 

एक कड़वा सच यह भी  

परिवर्तन जीवन का नियम है और विकास सफर का पड़ाव। परिवर्तन का नियम तो अपनी जगह काम कर रहा है, लेकिन विकास को लेकर क्या कहें। सड़क ने जीवन को रफ्तार क्या दी, हर दूरी बौनी हो गई। जंगल भी इससे अछूते नहीं रहे, जंगलों को आवरण को भेदने में सूरज ने भी हार मान ली, आधुनिकता ने उस पर भी विजय पा ली। फलस्वरूप आज आदमी जंगल में है और वन्य जीव शहरों में। गुरुवार को ऋषिकेश की आइडीपीएल कालोनी में दस घंटे गुलदार की दहशत रही। बात गुलदार की ही नहीं है, सीसीटीवी कैमरे में हाथी हरकी पैड़ी पर सुबह की सैर करते दिखे हैं। जाहिर है मानव-वन्य जीव संघर्ष को रोक पाना आसान नहीं है। सवाल यह है कि आखिर इसमें दोष किसका है। सच तो यह है कि धरती की सर्वाधिक विकसित प्रजाति मानव ने कुदरत से सांमजस्य बिठाने के बारे में कभी सोचा ही नहीं। 

पर उपदेश कुशल... सियासत की दुनिया के दिग्‍गजों पर बैठती है सटीक 

पर उपदेश कुशल बहुतेरे। सियासत की दुनिया के दिग्गजों पर यह कहावत पूरी तरह से सटीक बैठती है। राजनीतिक दल कोई भी हो, उपदेश इसी अंदाज में दिया जाता है। कोरोना संक्रमण के इस दौर में भी राजनीति के बयानवीर खुद को कर्मवीर साबित करने के लिए कुछ ऐसा ही कर रहे हैं। निजी आयोजनों के नाम पर जुट रही भीड़ में न तो शारीरिक दूरी के मानकों का पालन किया जा रहा है और न ही मास्क पहनने की गंभीरता को समझा जा रहा है। जश्न के बीच दूरियों की अनदेखी जिंदगी पर भारी पड़ सकती है, यह समझने की जहमत उठाने को भी कोई तैयार नहीं है। बात इतनी ही नहीं है, एक पार्टी में राष्ट्रीय नेता के स्वागत के नाम पर कार्यकर्ताओं में जोश इस कदर हाई था कि फोटो खिंचाने के लिए मंच पर पहुंचे तो चेहरा दिखाने के लिए धक्कामुक्की से भी गुरेज नहीं किया। 

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