यदि हिमालय के मूल स्वभाव पर ध्यान नहीं दिया गया तो चमोली जैसे हादसों की पुनरावृत्ति होती रहेगी

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ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर कमजोर हो रहे हैं।

आर्थिक विकास का प्रकृति के साथ संतुलन बनाना चाहिए। चमोली की आपदा हमारे लिए खतरे की घंटी है। इसका संज्ञान लेकर हमें देश की सभी नदियों के मुक्त बहाव को सुनिश्चित करने और उनकी पारिस्थितिकी बचाने के उपाय करने हों

रत का भूखंड एक भीमकाय पत्थर की चट्टान पर टिका हुआ है, जिसे ‘इंडियन प्लेट’ कहते हैं। यह प्लेट धीरे-धीरे उत्तर की ओर खिसक रही है, जहां वह तिब्बत की प्लेट से टकरा रही है। इन दोनों प्लेटों के टकराने से हिमालय, विशेषकर उत्तराखंड का क्षेत्र भूकंप से पीड़ित रहा है। पिछले 20 वर्षों को छोड़ दें तो लगभग हर दस वर्षों के दौरान उत्तराखंड में एक भूकंप आता रहा है। पिछले 20 वर्षों में कोई बड़ा भूकंप न आने का कारण यह हो सकता है कि टिहरी बांध में पानी के भारी भंडारण से इन दोनों प्लेटों के टकराव के बीच एक दबाव बन गया हो, जो उन्हें टकराने से रोक रहा हो। हालांकि भारतीय प्लेट उत्तर की ओर खिसक तो रही ही है। इसका दबाव भी बन रहा है और इससे आने वाले समय में भूकंप की आशंका बनी हुई है। गत रविवार को ऋषिगंगा में ग्लेशियर का स्खलन ऐसे टकराव से उत्पन्न कंपन के कारण हुआ हो सकता है। इसमें ऋषिगंगा के नीचे तपोवन-विष्णुगाड परियोजना की सुरंग बनाने के लिए किए गए विस्फोटों से उत्पन्न कंपन की भूमिका भी हो सकती है। यद्यपि वैज्ञानिकों की राय है कि विस्फोट की तरंगें दूर तक नहीं जातीं। फिर भी सूक्ष्म तरंगों का ग्लेशियर पर प्रभाव हमें ज्ञात नहीं है

ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर कमजोर हो रहे हैं

माना जाता है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण हमारे ग्लेशियर कमजोर हो रहे हैं। इसी कारण यह कहा जाता है कि ऐसी घटनाओं की आवृत्ति होती रहेगी। हरिद्वार से गंगा सागर तक का हमारा भूखंड इसी प्रकार के भूस्खलनों से आई मिट्टी को गंगा द्वारा नीचे ले जाने से बना है। इसलिए इस प्रकार की घटनाओं को पौधारोपण अथवा अन्य तरीकों से रोकना संभव नहीं दिखता। पिछले कुछ अर्से से उत्तराखंड की त्रासदियों में जलविद्युत परियोजनाओं की भी भूमिका मानी जाती है। 2014 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गठित रवि चोपड़ा कमेटी ने बताया था कि 2013 की आपदा में नुकसान केवल जल विद्युत परियोजनाओं के ऊपर और नीचे हुआ है। जल विद्युत परियोजनाओं द्वारा नदी के बहाव को रोकने से दुर्घटना घटती है। यदि ऋषिगंगा एवं तपोवन में बैराज न बनाया जा रहा होता तो ग्लेशियर का मलबा सहज ही सीधे गंगासागर तक निकल जाता और यह त्रासदी न घटती। बिल्कुल वैसे ही जैसे 2013 में चौराबारी ग्लेशियर से निकले मलबे को फाटा-व्यूंग, सिंगोली-भटवाडी और श्रीनगर परियोजनाओं ने न रोका होता तो त्रासदी होती ही नहीं। इस प्रकार तपोवन-विष्णुगाड परियोजना द्वारा मलबे के रास्ते में बनाए गए बैराज के अवरोध के कारण यह त्रासदी हुई है, न कि ग्लेशियर के फटने के कारण। संकटग्र्रस्त तपोवन-विष्णुगाड परियोजना के नीचे विष्णुगाड-पीपलकोटि परियोजना निर्माणाधीन है और उसके नीचे श्रीनगर परियोजना ने अलकनंदा का रास्ता रोक रखा है। अत: आने वाले समय में संकट के बादल मंडराते रहेंगे।

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