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हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा होय। साफ पानी के धंधे का हाल भी कुछ ऐसा ही है।...
संवाददाता: अमर जीत सिंह
RGA न्यूज बरेली : हींग लगे न फिटकरी, रंग भी चोखा होय। साफ पानी के धंधे का हाल भी कुछ ऐसा ही है। सभी को कमाई से मतलब है, धरती की कोख का ध्यान किसी को नहीं है चाहे वो कारोबारी हों या अधिकारी। जमीन से पानी खींचने का पैसा न ही नगर निगम ले रहा है और न भूगर्भ जल विभाग के पास जा रहा है। उद्योग विभाग भी इस धंधे से नावाकिफ है। खाद्य सुरक्षा एवं औषधि प्रशासन में भी पंजीकरण नहीं है। जिले में कितने आरओ प्लांट रोजाना जमीन की कोख सुखाकर मोटा मुनाफा कमा रहे हैं या आरओ प्लांट से वाकई शुद्ध पानी मिल रहा है, इसको पता करने की जहमत किसी विभाग ने नहीं उठाई। न ही इनके प्लांट तक निरीक्षण के लिए प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के ही कदम पहुंचे हैं।
भूगर्भ जल विभाग के पास डाटा तक नहीं
भूगर्भ विभाग के केंद्रीय और राज्य दोनों तरह के दफ्तर शहर में हैं। केंद्रीय भूगर्भ जल विभाग के दफ्तर में अब पब्लिक डीलिंग का काम नहीं है। वहीं, राज्य भूगर्भ जल विभाग के दफ्तर को आरओ प्लांट की संख्या के बाबत कुछ पता नहीं। कहते हैं प्लांट के लिए एनओसी ली जाती भी होगी तो लखनऊ में निदेशालय से। यहां केवल मंडल के विभिन्न हिस्सों में भूजल स्तर की स्थिति और पानी की सैंपलिंग होती है।
कार्रवाई को लेकर भी कंफ्यूजन
आरओ प्लांट पर कार्रवाई होनी है या नहीं? यह सवाल भी भूगर्भ विभाग के अधिकारियों के लिए यक्ष प्रश्न है। एक अधिकारी ने कहा कि एक्ट में कार्रवाई का कोई प्रावधान नहीं है। वहीं सीनियर हाइड्रोजियोलॉजिस्ट कहते हैं कि विभाग द्वारा रजिस्टर्ड प्लांट पर ही चेकिंग कर सकते हैं। हालांकि, उनके पास जिले के रजिस्टर्ड आरओ प्लांट की कोई जानकारी नहीं मिली।
..तो एफएसडीए कैसे जानते आरओ प्लांट वाले
हाल में सप्लाई के लिए पहुंचे एक वाटर कूलर में मांस का टुकड़ा निकला था। मामले ने तूल पकड़ा तो खाद्य सुरक्षा विभाग ने केवल सील पैक वाटर (विभिन्न कंपनियों की बोतल, आरओ जग) की ही सैंपलिंग की बात कही थी। चौंकाने वाली बात यह है कि शहर के तमाम आरओ प्लांट चलाने वालों से बात की तो वे इस विभाग और उसके अधिकारियों को अच्छी तरह जानते थे। ऐसे में सवाल यह है कि जब एफएसडीए इन आरओ प्लांट पर कार्रवाई ही नहीं कर सकता तो फिर उनके अधिकारियों की जान-पहचान कैसे हुई। प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड से भी नहीं एनओसी
तमाम उद्योगों को स्थापित करने के लिए प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड से एनओसी और कंसेंट ली जाती है। लेकिन जिले में किसी आरओ प्लांट ने प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड से एनओसी नहीं ली है। वहीं, बोर्ड ने भी हाल के सालों में शायद ही कभी आरओ प्लांट में निरीक्षण किया कि ड्रेनेज किस तरह किया जा रहा है। प्रशासन चिट्ठी ट्रांसफर कर बचाता है गर्दन
भूगर्भ जल विभाग के सूत्र बताते हैं कि पूर्व में एक मॉल के निर्माण और बाद में शहर के कई होटल के निर्माण के समय सबर्मिसबल पंप लगा पानी के भीषण दोहन को लेकर इलाकाई लोग कई बार प्रशासन से शिकायत कर चुके हैं। प्रशासन इस बाबत भूगर्भ जल विभाग को चिट्ठी ट्रांसफर कर इतिश्री कर लेता है। भूगर्भ जल विभाग के अधिकारी कहते हैं कि कार्रवाई का उसे अधिकार नहीं। अब महज गर्मी तक सीमित नहीं धंधा
जिले में 200 के करीब आरओ प्लांट बिना रजिस्ट्रेशन गली-मुहल्लों में खुले हैं। पहले जहां यह धंधा गर्मी तक सीमित था। वहीं, अब पानी की लगातार गिरती क्वालिटी के चलते पनपे डर की वजह से यह साल भर का धंधा हो गया है। वाटर कूलर की कीमत 20 रुपये प्रतिदिन के लिहाज से हर महीने 600 रुपये के करीब आती है। ऐसे में एक आरओ प्लांट से 200 वाटर जग की सप्लाई भी लें तो कुल मिलाकर हर महीने दो करोड़ से ज्यादा का धंधा और साल में 24 करोड़ से ज्यादा का कारोबार बिना किसी डर के फैला है। वर्जन
मंडलीय दफ्तर में तय जगहों पर वाटर लेवल की रिपोर्ट तैयार होती है। इसके अलावा भूजल में तत्वों पर अध्ययन होता है। आरओ प्लांट की एनओसी जिला स्तर पर नहीं ली गई है। लखनऊ निदेशालय से जारी हो, इसका पता नहीं।
- धर्मवीर सिंह राठौर, सीनियर हाइड्रोजियोलॉजिस्ट, भूगर्भ जल विभाग जिले के किसी आरओ प्लांट को बोर्ड से एनओसी नहीं दी गई है। हालांकि, माइक्रो इंडस्ट्री के चलते यह जरूरी भी नहीं है। फिर भी ड्रेनेज आदि को लेकर चेक किया जाएगा।
- अनिल चौधरी, क्षेत्रीय अधिकारी, यूपीपीसीबी