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अलीगढ़ के एक गांव करसुआ में जहरीली शराब पीने से हुई मौतों पर शोक मनाते बुजुर्ग। जागरण
अवैध धंधे के संचालक क्यों नहीं खौफ खा रहे और कैसे इन्हें खौफजदा किया जा सकता है लेकिन साथ ही यह भी देखा जाए कि आखिर क्या वजह है कि जान की परवाह किए बगैर लोग शाम होते ही गांव के बाहर शराब के ठेकों पर पहुंच जाते हैं।
लखनऊ, मौजूदा दौर कोरोना महामारी का है, लेकिन हमारे यहां समाज में भी कई तरह की महामारी व्याप्त हैं, जिनकी अनगिनत लहर आती-जाती रहती हैं। मिलावटी अथवा जहरीली मदिरा का अवैध कारोबार भी ऐसी ही महामारी है। दुर्भाग्य से कोरोना की तरह इसकी भी कोई दवाई और वैक्सीन अब तक उपलब्ध नहीं है। लक्षणों के आधार पर उपचार की परंपरा ही कायम है। गनीमत है कि कोरोना की तरह यह महामारी पासपोर्टधारकों के जरिये आकर राशनकार्ड धारकों तक नहीं पहुंचती बल्कि सीधे राशन कार्ड धारक को ही लक्ष्य करती है या फिर जिनके पास कोई कार्ड है ही नहीं, उन्हें निशाना बनाती है। यह महामारी किसी लैब में पैदा नहीं हुई और न ही वुहान से इसका कोई रिश्ता है। यह महामारी लालच की लैब से पैदा होती है और या तो प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाती है या बिल्कुल ही खत्म कर देती है। जैसा कि अलीगढ़ में हुआ। इसने दर्जनों लोगों की प्रतिरोधक क्षमता खत्म कर उन्हें सीधे मौत का निवाला बना दिया
नसरकारी और गैर सरकारी आंकड़ों में न जाएं तो अलीगढ़ में एक ब्रांड की मिलावटी शराब ने लगभग आधा सैकड़ा लोगों की जान ले ली। तादाद रोज बढ़ ही रही है। यह तब है जब अभी पंचायत चुनाव से पहले प्रदेश सरकार ने बड़े पैमाने पर अभियान चलाकर अवैध शराब की भट्ठियों को नष्ट कराया था। कइयों को पकड़कर जेल में ठूंसा। कई माफिया किस्म के शराब के धंधेबाजों को ठोका गया। यह जरूर है कि इस बार पंचायत चुनाव के दौरान मिलावटी या अवैध शराब के कारण मौतें पिछले चुनावों की तुलना में कम हुईं। पंचायत चुनाव में इस बार जलेबी और रसगुल्ले वोटों की रिश्वत में बंटे। नकदी भी बंटी होगी, परंतु इसके प्रमाण नहीं हैं।
अलीगढ़ में एक ब्रांड की मिलावटी देसी शराब को सरकारी ठेकों अथवा इनके ठेकेदारों द्वारा दिए गए सब कांट्रैक्ट वाले ठिकानों से बेचा गया। जाहिर है, जब सरकारी ठेके ही शामिल हैं तो शराब की गुणवत्ता की जिम्मेदारी भी उनकी है, लेकिन इधर लालच के कारण इन ठेकों से मिलावटी शराब बेची गई और वह जानलेवा बन गई। एक-दो नहीं कई गांव के गांव श्मशान का पर्याय बन गए। शुरुआती जांच में पता चला है कि मिलावटी शराब का यह धंधा स्थानीय सरकारी ठेकेदार सिंडीकेट, आबकारी महकमे और पुलिस की मिलीभगत से चल रहा था। वैसे, जांच न भी की जाती तो भी यही निष्कर्ष कोई भी व्यक्ति निकालकर दे सकता है। यह मिलीभगत ठेके उठने की प्रक्रिया से ही शुरू हो जाती है। यहां भी यही हुआ।
जानकार बताते हैं कि अलीगढ़ में ऐसे सौ ठेकों पर माफिया के सिंडीकेट ने कब्जा कर रखा है। अब इनकी सूची बेशक बन रही है, लेकिन पहले यह फर्ज नहीं निभाया गया। सिंडीकेट माफिया रिश्तेदार व परिचितों के नाम से शराब के ठेके लेकर खुद ही पूरी व्यवस्था संभाल रहे हैं। जबकि इस सिंडीकेट को तोड़ने के लिए ही पूर्व से इतर वर्तमान सरकार ने यह व्यवस्था की थी कि कोई भी दो से अधिक ठेके नहीं ले सकता। इसके लिए भी हैसियत प्रमाणपत्र के साथ दूसरी कई शर्तें लगा दी गई थीं। लेकिन माफिया के नेटवर्क ने इस व्यवस्था की धज्जियां उड़ा दीं। यह गूढ़ रहस्यभरा प्रश्न है कि सरकार अपनी इच्छा शक्ति (शराब राज्य की कमाई का एक बड़ा जरिया है) के साथ इससे कैसे निपटती है, लेकिन अनुभव से इतना तो सिद्ध है कि यह अकेले सरकार के बस का नहीं। सरकार के मद्य निषेध विभाग के बूते की बात भी नहीं। इसके लिए समाज के लोगों को आगे आना पड़ेगा
किसी भी समाज में उच्च, मध्यम और निम्न आय वर्ग के लोग मिल जाते हैं। लेकिन अलीगढ़, जहां ये मौते हुईं और आसपास के दूसरे जिलों को देखें तो यहां दो तरह की आबादी ही ज्यादा मिलती है। एक उच्च आय वर्ग (जो कि तमाम उद्योगों का संचालक है) और दूसरा निम्न आय वर्ग (जो इन उद्योगों में श्रम का ईंधन झोंकता है)। श्रम के मूल्य में जो पैसा मिलता है, उसका एक बड़ा हिस्सा इन शराब के ठेकों तक पहुंचता है। आनंद के लिए नहीं, बल्कि तकलीफों और श्रम की पीड़ा को भुलाने के लिए। इस पर शोध हो सकता है कि इतनी सख्ती के बावजूद अवैध धंधे के संचालक क्यों नहीं खौफ खा रहे और कैसे इन्हें खौफजदा किया जा सकता है, लेकिन साथ ही यह भी देखा जाए कि आखिर क्या वजह है कि जान की परवाह किए बगैर लोग शाम होते ही गांव के बाहर शराब के ठेकों पर पहुंच जाते हैं। यह काम सरकार नहीं समाज को करना होगा। तभी तस्वीर बदलेगी।