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बरसात में ज्यादा खतरनाक होते हैं गुलदार।
बरसात का सीजन सिर पर है। इसके साथ ही उत्तराखंड के वन क्षेत्रों से सटे इलाकों में चिंता के बादल भी घुमड़ने लगे हैं। चिंता बारिश की नहीं बल्कि वर्षाकाल में घर-गांवों के नजदीक धमकने वाले गुलदारों को लेकर है।
देहरादून बरसात का सीजन सिर पर है। इसके साथ ही उत्तराखंड के वन क्षेत्रों से सटे इलाकों में चिंता के बादल भी घुमड़ने लगे हैं। चिंता बारिश की नहीं, बल्कि वर्षाकाल में घर-गांवों के नजदीक धमकने वाले गुलदारों को लेकर है। ये कब कहां, जान के खतरे का सबब बन जाएं, कहा नहीं जा सकता। यूं तो समूचे उत्तराखंड में गुलदारों के आंतक ने नींद उड़ाई है, लेकिन बरसात में ये ज्यादा खतरनाक हो जाते हैं।
हर साल बरसात में इनके हमलों की बढ़ती संख्या इसकी तस्दीक करती है। दरअसल, बरसात में जंगलों में बारिश के कारण जमा होने वाले पानी के मद्देनजर गुलदार शिकार की तलाश में आबादी वाले क्षेत्रों की तरफ ज्यादा धमकते हैं। साथ ही मौका देखकर व्यक्तियों पर हमला कर देते हैं। जाहिर है कि चौमासे में अधिक सावधानी बरतने की जरूरत है। यही नहीं, वन विभाग को भी वर्षाकाल में गांवों पर ज्यादा फोकस करना होगा।
जंगल बढ़ाने को मियावाकी तकनीक का सहारा
उत्तराखंड में जंगलों को इस बार आग ने गहरे जख्म दिए हैं। अब तक आग की 2927 घटनाओं में 3970 हेक्टेयर क्षेत्र में वन संपदा को भारी क्षति पहुंची है। इसे देखते हुए मानसून सीजन में वृहद पौधारोपण की तो तैयारी है ही, जंगल प्राकृतिक रूप से पनपें इस पर भी फोकस किया गया है। इसके लिए जापान की मियावाकी तकनीक का सहारा लेने की तैयारी है।
इसके तहत किसी क्षेत्र विशेष में सघन पौधरोपण कर वहां मानवीय हस्तेक्षप बंद कर दिया जाता है। फिर वहां जंगल खुद ही पनपता है। पीपलपाड़व व रानीखेत में इसका प्रयोग सफल रहा है। अब इसे व्यापक रूप देने की रणनीति तैयार की जा रही है। दरअसल, यह समय की मांग भी है। जिस हिसाब से जंगलों में मानवीय हस्तक्षेप बढ़ा है, उसने चुनौतियां भी खड़ी की हैं। ऐसे में अब मियावाकी तकनीक से विकसित होने वाले जंगलों पर सभी की नजरें टिकी हैं।
धरातल पर आकार नहीं ले पाई 'गंगा'
कार्बेट और राजाजी टाइगर रिजर्व के मध्य अवस्थित पौड़ी गढ़वाल जिले का प्रवेशद्वार कोटद्वार। चौतरफा जंगल से घिरे इस शहर में नमामि गंगे परियोजना के तहत खोह और कोल्हू नदी के मध्य 10 हेक्टेयर क्षेत्र में आकार लेनी थी सिद्धबली गंगा वाटिका। मकसद था, जनसामान्य को गंगा के साथ ही जंगल और पर्यावरण के संरक्षण की सीख देते हुए इस मुहिम में जोड़ना। परियोजना के तहत धनराशि भी वन महकमे को दे दी गई। वर्ष 2019 में इसका शिलान्यास हुआ।
पूरी रकम खर्च कर दी गई, मगर यह अभी तक आकार नहीं ले पाई है। मामला उछला तो जांच भी हुई, मगर इसे लेकर सरकारी रवायत किसी से छिपी नहीं है। सूरतेहाल, वन महकमे की कार्यशैली सवालों के घेरे में है। हालांकि, अब उच्च स्तर से कहा जा रहा कि प्रकरण की फिर से पड़ताल कराई जा रही है। देखने वाली बात ये होगी अब एक्शन होता है अथवा नहीं।
जंगल से सटे क्षेत्रों में सगंध खेती
वन्यजीवों के संरक्षण में उत्तराखंड अग्रणी भूमिका निभा रहा है। बाघ, हाथी समेत दूसरे जंगली जानवरों का बढ़ता कुनबा इसकी तस्दीक करता है। इसके साथ ही दूसरे पहलू पर रोशनी डालें तो जंगली जानवर यहां जनसामान्य के लिए मुसीबत का सबब भी बने हुए हैं। कहीं फसलें चौपट तो कहीं जान का खतरा। इस परिदृश्य के बीच लगातार ऐसी नीतियों की बात कही जा रही, जिससे वन्यजीव भी महफूज रहें और मनुष्य भी।
इसी कड़ी में वन सीमा से सटे इलाकों में खेती का पैटर्न बदलते हुए वहां सगंध खेती का विकल्प सामने आया। राजाजी टाइगर रिजर्व से सटे कुछ गांवों में यह प्रयोग सफल रहा है। वहां वन्यजीवों का खेतों में धमकना तो कम हुआ तो सगंध खेती से किसानों को लाभ भी मिला। इसे देखते हुए अब प्रदेश के अन्य संरक्षित, आरक्षित वन क्षेत्रों से लगे आबादी वाले इलाकों में ऐसी पहल पर जोर दिया जा रहा है।