आगरा से उठी उप्र का राजकीय चिह्न बदलने को आवाज, इतिहासकार ने दी बड़ी दलील

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RGA न्यूज़

राजकीय चिह्न में एक वृत्त में धनुष-बाण गंगा-यमुना के साथ ही दाएं-बाएं दो मछलियां बनी हुई हैं। इस चिह्न को वर्ष 1938 में स्वीकृत किया गया था। इतिहासविद् राजकिशोर शर्मा राजे ने सीएम योगी को भेजा पत्र। चिह्न में मछलियों की वजह से नवाबों का स्मरण होने की बात कही

इतिहासविद् राजकिशोर राजे ने उप्र सरकार से चिन्‍ह बदलने की मांग की है।

आगरा, ताजनगरी से उप्र के राजकीय चिह्न को बदलने की आवाज उठी है। इतिहासविद् राजकिशोर शर्मा राजे ने राजकीय चिह्न में बनीं दो मछलियों से लखनऊ के पुराने नवाबों का अनायास स्मरण होने की बात कहते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को पत्र भेजा है। उन्होंने चिह्न में बदलाव की मांग की है।

उप्र के राजकीय चिह्न में एक वृत्त में धनुष-बाण, गंगा-यमुना के साथ ही दाएं-बाएं दो मछलियां बनी हुई हैं। इस चिह्न को वर्ष 1938 में स्वीकृत किया गया था। इतिहासविद् राजकिशोर राजे ने बताया कि राजकीय चिह्न में बनीं मछलियां लखनऊ के पुराने नवाबों का स्मरण कराती हैं। मुगल शासक अकबर के शासनकाल में शेखजादे लखनऊ में प्रभावशाली हो गए थे। उस समय शेख अब्दुर्रहीम ने लक्ष्मण टीला के निकट एक छोटा किला बनवाया था। उसे शाही दरबार से इल्मे-माही-मरातिब का खिताब मिला था। इस स्थान पर 26 मेहराबें थीं, प्रत्येक मेहराब पर दो-दो मछलियों की आकृतियां थीं। कुल मछलियों की आकृतियाें की संख्या 52 थी। यह मछलियां ही आज तक उप्र सरकार का शासकीय चिह्न बनी हुई हैं। इस स्थान को आज मच्छी भवन के नाम से जाना जाता है। इसका उल्लेख लेखक अब्दुल हलीम शरर ने "गुजिस्ता लखनऊ' के पेज 14 पर किया है। राजे कहते हैं कि राजकीय चिह्न में बनीं मछलियां नवाबकालीन चिह्नों पर आधारित हैं। इसलिए राजकीय चिह्न में बदलाव किया जाना चाहिए।

मच्छी भवन का सफदरजंग ने कराया था जीर्णोद्धार

लेखक योगेश प्रवीन की पुस्तक "गुलिस्तान-ए-अवध' के पेज 47 पर लिखा है कि शेखों के बाद मुगल सूबेदार लखनऊ के नवाब बने। उनका मछलियों के प्रति लगाव पूर्ववत् रहा। जीर्ण-शीर्ण हो रहे मच्छी भवन का जीर्णोद्धार नवाब सफदरजगंज ने कराया था। लखनऊ के नवाब मोहम्मद अलीशाह के इमामबाड़े पर पीतल की बनी मछली देखी जा सकती है। ठाकुरगंज मोहल्ले में बेदारबख्त के फाटक पर खूबसूरत आबनूसी लकड़ी से बनी मछली भी देखी जा सकती है। अवध की निशान-ए-सल्तनत की मोहर का मर्कज पत्थर की बनी दो मछलियां आज भी आगा मीर की कोठी के दीवानखाने में देखी जा सकती हैं। योगेश प्रवीन ने अपनी पुस्तक में पेज 44 पर मुस्लिमों में शादी-बरात में मेहंदी साचक जैसी रस्म में पानी के घड़ों में सात मछलियां मारकर लगाने के रिवाज का भी उल्लेख किया है।

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