पहाड़ से आए तो घुघुतिया त्यार मनाने की परंपरा साथ लाए, शहर में आकर भी नहीं भूले परंपरा

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RGAन्यूज़

मकर संक्रांति को कुमाऊं में घुघुतिया त्यार नाम से जाना जाता है। मकर संक्रांति पर पवित्र नदियों में स्नान करने के साथ दान व पुण्य का महत्व तो है ही कुमाऊं में मीठे पानी में से गूंथे आटे से विशेष पकवान बनाने का भी चलन

घुघुतिया के दूसरे दिन बच्चे काले कौआ, घुघुती माला खाले की आवाज लगाकर कौए को बुलाते हैं

हल्द्वानी : सूर्य के धनु राशि से निकलकर मकर में प्रवेश करने के पर्व मकर संक्रांति को कुमाऊं में घुघुतिया त्यार नाम से जाना जाता है। मकर संक्रांति पर पवित्र नदियों में स्नान करने के साथ दान व पुण्य का महत्व तो है ही, कुमाऊं में मीठे पानी में से गूंथे आटे से विशेष पकवान बनाने का भी चलन है। बागेश्वर से चम्पावत व पिथौरागढ़ जिले की सीमा पर स्थित घाट से होकर बहने वाली सरयू नदी के पार (पिथौरागढ़ व बागेश्वर निवासी) वाले मासांत को यह पर्व मनाते हैं। जबकि शेष कुमाऊं में इसे संक्रांति के दिन मनाया जाता है। गांवों से निकलकर हल्द्वानी व दूसरे शहरों में बस गए लोग अपनी माटी से भले दूर हो गए हों, लेकिन घुघुतिया त्यार मनाने की परंपरा आज भी वही है। घुघुतिया के दूसरे दिन बच्चे काले कौआ, घुघुती माला खाले की आवाज लगाकर कौए को बुलाते हैं।

नई शिक्षा नीति से आएगा बदलाव 

हमारा गांव अल्मोड़ा जिले के बाड़ेछीना के पास सुपई गांव में है। हमारा परिवार 1983 में हल्द्वानी आ गया। उत्तरायणी समेत दूसरे पर्व को हम आज भी उसी आस्था के साथ मनाते हैं। हालांकि काफी बदलाव आया है। नई पीढ़ी हमारे पर्व, तिथि, मासांत, संक्रांति को नहीं जानती। नई शिक्षा में स्थानीय पर्व, त्योहारों को पढ़ाए जाने की बात हुई है, इससे कुछ सुधार आए

- डा. चंद्रशेखर तिवारी, अध्यक्ष पर्वतीय उत्थान मंच हीरानगर 

कौए नहीं तो कुत्ते को खिलाने हैं घुघुते 

पिथौरागढ़ जिले के बेरीनाग से 1991 में हमारा परिवार हल्द्वानी आ बसा। पहाड़ हमारी रग-रग में बसा है। नई पीढ़ी को अपनी संस्कृति, रीति-रिवाज से परिचित कराना हमारी ही जिम्मेदारी है। बच्चे हमारी देखा-देखी सीखते हैं। आज भी प्रत्येक स्वजन, रिश्तेदारों के लिए घुघुते की माला बनती है। यह जरूर है कि शहर में कौए नहीं दिखने से गाय, कुत्ते को पहले घुघुते खिलाने लगे हैं। 

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