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RGAन्यूज़
यूपी विधानसभा चुनाव आते ही सभी दल वोट बैंक मजबूत करने में जुट गए हैं। चुनाव के समय पहले कभी नारों से समर्थन जुटाने का सिलसिला चलता था। नारे भी ऐसे होते थे जिनसे कm
चुनाव में कभी लगते थे दमदार नारे।
कानपुर। चुनाव प्रचार के दौरान लगाए जाने वाले नारे काफी अहमियत रखते हैं। ये कार्यकर्ताओं का जोश तो बढ़ाते ही हैं मतदाताओं को भी लुभाने का बड़ा काम करते हैं। कई बार दमदार नारे मतदाता की सोच बदलकर उन्हें मन बदलने पर भी मजबूर कर देते हैं। कुछ ऐसा ही 1952 के चुनाव में भी हुआ था
वरिष्ठ कांग्रेस नेता शंकरदत्त मिश्रा बताते हैं कि उस दौर में कांग्रेस के प्रत्याशी हरिहर नाथ शास्त्री के विरोध में शहर के एक नामी उद्योगपति ने अपना प्रत्याशी खड़ा कर दिया था। इसके बाद नारा दिया गया 'नहीं चाहिए सौ का नोट, कांग्रेस को देंगे वोट'। इस नारे का असर हुआ और विरोध में खड़े उद्योगपति के प्रत्याशी स्वयं बैठ गए। हर दौर में कांग्रेस ने बदले हुए नारे दिए जो जनता के दिलों को छूते थे। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के दौर में 'गूंजे धरती और पाताल, नेता एक जवाहर लाल' गूंजता था तो इंदिरा गांधी के समय में 'तूफानों में आंधी में, विश्वास है इंदिरा गांधी में' गूंज
वर्ष 1978 में विघटन के बाद कांग्रेस को चुनाव निशान हाथ का पंजा मिला, जिसके बाद कांग्रेसियों ने चुनाव में कहना शुरू किया 'देना मोहर तान के, पंजे को पहचान के'। वह बताते हैं कि नारे बनाने में कांग्रेस काफी मेहनत करती थी। नारों का आधार सकारात्मक होता था। महिलाओं को पार्टी से जोडऩे और वोट की अपील करते हुए नारों में स्थान दिया जाता था। इसी से जुड़ा एक नारा बना 'माता बहनों कर लो नोट, कांग्रेस को देना वोट'। वरिष्ठ कांग्रेस नेता बताते हैं कि विपक्ष पर कटाक्ष भी तब की राजनीति में शालीनता से किया जाता था। कांग्रेस के नारों का आधार हमेशा सकारात्मक रहा। आज की राजनीति और नारों से सकारात्मकता और शालीनता दोनों समाप्त हो गई है।