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मूंज सूत-कपास और रेशम से बने जनेऊ को पहनने की परंपरा है। ब्राह्मण मूंज के धागे का जनेऊ धारण करते हैं। हनुमान चालीसा में चौपाई भी है कि कांधे मूंज जनेऊ साजे। ब्राह्मण जिस जनेऊ को धारण करते हैं उसे अंगुलियों में 96 बार लपेटकर मूंज से ब
प्रयागराज में मिलने वाले जनेऊ का खास महत्व है। इसकी दूर-दूर तक मांग है।
प्रयागराज, सनातन धर्मावलंबियों ने शरीर पर जनेऊ धारण को विशेष अध्यात्मिक और सामाजिक महत्व दिया है। कहते हैं कि इससे मानव ब्रह्मा, विष्णु, महेश की छत्रछाया में रहता है। फिर बात जब तीर्थराज प्रयाग में गंगा, यमुना और अदृश्य संगम तट की रेती से मिलने वाले जनेऊ की हो तो इसका महत्व ही कुछ अलग ही हो जाता है। माघ मेला क्षेत्र में जगह-जगह जनेऊ की पटरी पर लगी दुकानें दिख जाएंगी। पीले, सफेद और गेरुए रंग के भी जनेऊ लोग खूब खरीदते हैं। स्थानीय ही नहीं, सुदूर राज्यों से आने वाले लोग भी हर वर्ष माघ मेले से जनेऊ ले जाते
मान्यता है कि जनेऊ धारण करने वालों पर हनुमान जी की होती है विशेष कृपा
जनेऊ के आकार, प्रकार और रंग, सबका सनातन धर्म में अलग-अलग उल्लेख है। संगम क्षेत्र में मिलने वाले जनेऊ की देश भर में मांग हैं। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि बंधवा के लेटे हनुमान जी की विशेष कृपा जनेऊ धारण करने वाले लोगों पर होती है। इसीलिए श्रद्धालु संगमनगरी से जनेऊ लेकर जाते हैं और कांधे पर टांगकर पूरे साल धर्म-कर्म और सनातनी परंपराओं का निर्वहन करते हैं
जनेऊ के धांगों से बंधे हैं अलग-अलग वर्ण
मूंज, सूत-कपास और रेशम, इन सभी से बने जनेऊ को पहनने की परंपरा है। ब्राह्मण मूंज के धागे का जनेऊ धारण करते हैं। हनुमान चालीसा में चौपाई भी है कि, कांधे मूंज जनेऊ साजे। ब्राह्मण जिस जनेऊ को धारण करते हैं उसे अंगुलियों में 96 बार लपेटकर मूंज से बनाया जाता है। इसे 96 चौआ भी कहतेे हैं। यानी चारों अंगुलियों में लपेटकर बनाया गया जनेऊ। ब्राह्मणों के अलावा क्षत्रिय, वैश्य समुदाय में जनेऊ संस्कार की उम्र निर्धारित है
वस्त्र जितना ही आवश्यक है जनेऊ
मेला क्षेत्र में जनेऊ की दुकान पर पहुंचे कौशांबी के सोमदत्त शुक्ला बताते हैं कि जितना आवश्यक उनके लिए वस्त्र है, उससे कहीं ज्यादा जरूरी वह जनेऊ को मानते हैं। कहा कि कर्म की उपासना के लिए जनेऊ आवश्यक है। मनुष्य के जीवन मेें सभी संस्कारों के साथ जनेऊ संस्कार भी शामिल है। इसका सामाजिक और वैज्ञानिक ²ष्टीकोण से बड़ा ही महत्व है। गोपीगंज से आए राधेश्याम बताते हैं, जनेऊ पहनना तो आवश्यक है लेकिन उसके अनुसार दिनचर्या का पालन कठिन है। पूजन में, नित्य क्रिया में जनेऊ का विशेष महत्व है, जिसका वह पालन करते हैं। रायबरेली से आए अश्वनी कुमार बतातें हैं कि जब वह 16 वर्ष के थे तभी उनका जनेऊ संस्कार करा दिया गया था। घर का माहौल धार्मिक होने की वजह से जनेऊ उनके जीवन में रच बस गया है।