मां की याद आने पर फिराक गोरखपुरी पढ़ते थे श्रीराम चरित मानस

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RGAन्यूज़

पुण्यतिथि पर विशेष 28 अगस्त 1896 में बसगांव गोरखपुर में जन्में फिराक 1913 में मैट्रिक की परीक्षा पास करके प्रयागराज आ गए थे। यहां शायरी लिखने लगे। इससे उनका नाम फिराक गोरखपुरी पड़ा। राष्ट्रवादिता का जुनून ऐसा सवार था कि महात्मा गांधी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में 

फिराक 1913 में मैट्रिक की परीक्षा पास करके प्रयागराज आ गए थे

 

प्रयागराज, । 'मां जैसा स्नेह, ज्ञान व समर्पण मुझे श्रीराम चरित मानस से मिलता है। मानस का हर पन्ना मेरे लिए मां की गोद के समान सुकून देता है। श्रीरामचरितमानस के प्रति ये आत्मीय जुड़ाव व्यक्त किया था गजल को नई शैली देने वाले रघुपति सहाय उर्फ फिराक गोरखपुरी ने। प्रख्यात गीतकार यश मालवीय बताते हैं कि 1980 में मेरे पिता उमाकांत मालवीय साहित्यिक पत्रिका 'सारिका के लिए फिराक गोरखपुरी का साक्षात्कार लेने उनके बैंक रोड स्थित घर गए थे। मैं भी उनके साथ था। मेज में श्रीरामचरितमानस को देखकर पिता जी ने पूछा क्या आप इसे पढ़ते हैं? ये सुनकर फिराक जी ने मानस की तुलना मां से किया था। बताया था कि मेरी मां का निधन जल्द हो गया था। मुझे जब मां की कमी खलती है तो मानस पढ़ता हूं।

 

28 अगस्त 1896 में बसगांव गोरखपुर में जन्में फिराक 1913 में मैट्रिक की परीक्षा पास करके प्रयागराज आ गए थे। यहां साहित्यिक वातावरण में रमकर शायरी लिखने लगे। इसी से उनका नाम फिराक गोरखपुरी पड़ा। वरिष्ठ साहित्यकार प्रो. राजेंद्र कुमार बताते हैं कि राष्ट्रवादिता का जुनून फिराक पर ऐसा सवार था कि आइसीएस (इंडियन सिविल सर्विसेस) नौकरी त्यागकर महात्मा गांधी के साथ स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय हो गए। अंग्रेजों ने गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया। जेल में रहकर 'अहले जिंदा की यह महफिल है, सुबूत इसका फिराक की रचना की। तीन मार्च 1982 में नई दिल्ली में उनका निधन 

इवि में नहीं लग सकी प्रतिमा

फिराक गोरखपुरी इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग में शिक्षक थे। पद्मभूषण, ज्ञानपीठ साहित्य अकादमी जैसे पुरस्कार से पुरस्कृत फिराक ने इवि का गौरव बढ़ाने में अतुलनीय योगदान दिया है, लेकिन उसी इवि में उनकी मूर्ति को स्थान नहीं मिल रहा है। उर्दू के वरिष्ठ आलोचक व इवि में उर्दू विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. अली अहमद फातमी ने कल्चरल कमेटी के चेयरमैन करते हुए 2015-2016 में अंग्रेजी विभाग के सामने फिराक की मूर्ति लगाने का प्रयास किया था, लेकिन बाद में वहां मुंशी प्रेमचंद की मूर्ति लग गई। इसके बाद हिंदी व उर्दू विभाग के बीच में मूर्ति लगाने का प्रस्ताव तैयार किया, मूर्ति भी बन गई, लेकिन उसे स्थान नहीं मिला

प्रो. फातमी कहते हैं कि फिराक की मूर्ति न लगने से उन्हें आत्मीय पीड़ा है। बताते हैं कि उन्हें 1972 से 1982 तक फिराक का सानिध्य प्राप्त हुआ है। वे अद्भुत व्यक्ति थे। एक बार मेरे हाथ में मोटी किताब देखकर मुस्कुराकर बोले, अच्छा तुम मोटी-मोटी किताबें पढ़ते हो। मैंने जवाब दिया पढऩा पड़ता है सर। ये सुनकर उन्होंने कहा कि तुम क्या पढ़ते हो उससे हमें मतलब नहीं है। तुम क्या सोचते व करते हो? उससे मतलब है।

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