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देश में लिबरल राजनीति और चिंतन का दायरा सिकुड़ तो गया है, लेकिन ख़त्म बिल्कुल नहीं हुआ है. यह भी सच है कि लिबरल बुद्धिजीवी भी अपनी बात बहुत संभलकर कह रहे हैं. सार्वजनिक जीवन में घटती उदारता पर चर्चा तक करना मुश्किल हो गया है।
तकरीबन 17 करोड़ की आबादी वाले मुसलमान और उनके मसलों पर राजनीतिक चर्चा करने का काम अकेले असददुद्दीन ओवैसी पर छोड़ दिया गया है।मुसलमानों का नाम लेने से कांग्रेसी हों या समाजवादी सब कतराने लगे हैं लेकिन पाकिस्तान, चरमपंथी संगठन इस्लामिक स्टेट और आतंकवाद का नाम लेकर मुसलमानों पर निशाना साधने वाले सबसे मुखर हैं।
इन दिनों देश के कई गंभीर बुद्धिजीवी इस बहस में शामिल हो गए हैं कि देश के मुसलमानों को कैसा होना चाहिए. उनको कैसा दिखना चाहिए, क्या पहनना चाहिए, क्या खाना चाहिए...बीफ़ बैन के बाद अब चर्चा अक्सर उनकी दाढ़ी और बुर्क़े पर होने लगी है।नफ़रत को राजनीतिक पूंजी बनाने की कोशिश बहुत वर्षों से चल रही थी जो अब कामयाब होती दिख रही है।
माहौल ऐसा बना दिया गया है कि मुसलमान यानी ऐसा व्यक्ति जिसकी इस देश के प्रति निष्ठा संदिग्ध है. 1857 से लेकर 1947 तक देश के लिए जान देने वाले हज़ारों मुसलमानों के बारे में ऐसा माहौल उन लोगों ने बनाया जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में शामिल न होने का फ़ैसला लिया था. 1947 में पाकिस्तान जाने का विकल्प होने के बावजूद, ये वतन से मुहब्बत ही तो थी और हिंदुओं पर विश्वास था कि लाखों-लाख लोग पाकिस्तान नहीं गए।
देशभक्ति का सर्टिफ़िकेट
अब हिंदुओं के नेतृत्व का दम भरने वाले संगठनों ने देशभक्ति का प्रमाणपत्र बाँटने का ज़िम्मा अपने ऊपर ले लिया है, दाढ़ी रखने वाला, नमाज़ पढ़ने वाला, टोपी पहनने वाला मुसलमान अपने-आप अयोग्य घोषित हो जाता है. उसे तो एपीजे अब्दुल कलाम के खाँचे में फिट होने वाला मुसलमान चाहिए जो गीता बाँचे और वीणा बजाए लेकिन अपने धर्म के कोई लक्षण ज़ाहिर न होने दे।
दूसरी ओर, भजन, कीर्तन, तीर्थयात्रा, धार्मिक जयकारे और तिलक आदि लगाने को देशभक्ति का लक्षण बनाया जा रहा है यानी जो ऐसा नहीं करेगा वो देशभक्त नहीं होगा, ज़ाहिर है मुसलमान अपने-आप किनारे रह जाएँगे।देखा यह गया है कि जब भी सरकार की किसी नाकामी से पर्दा उठता है तो कोई दुश्मन तलाश लिया जाता है और सरकार प्रायोजित राष्ट्रवाद उसको हवा देने लगता है. दुश्मन के ख़िलाफ़ लोगों को लामबंद करना बहुत आसान होता है।
इस तरह का राष्ट्रवाद हर उस व्यक्ति या संगठन को शत्रु के रूप में पेश कर देता है जिसके बारे में शक हो जाए कि वह स्थापित सत्ता को किसी रूप में चुनौती दे सकता है. वह कोई ट्रेड यूनियन, कोई छात्र संगठन, कोई एनजीओ, जन आंदोलन या कोई अन्य संगठन हो सकता है।
इसी खाँचे में मुसलमानों को सरकारी राष्ट्रवादी जमातों ने फिट कर दिया है. टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में यह बात लगभग रोज़ ही रेखांकित हो रही है. साफ़ नज़र आ जाता है कि लक्ष्य की पहचान करके निशानेबाज़ी की जा रही है जिसके कारण मुसलमान होना और चैन से रहना मुश्किल होता जा रहा है।
इस सिलसिले में हर्ष मंदर के एक लेख का ज़िक्र करना उपयोगी होगा. उन्होंने लिखा कि एक दलित राजनेता ने मुसलमानों से कहा कि आप मेरी सभा में ज़रूर आइए लेकिन एक ख़ास किस्म की टोपी या बुर्का पहनकर मत आइए।
रामचंद्र गुहा इस बात से असहमत हैं, उनका तर्क है कि कि यह ठीक नहीं है।यह मुसलमानों को एक कोने में धकेल देने की एक कोशिश है, उनके विकल्प छीन लेने की साज़िश है जबकि मुकुल केशवन कहते हैं कि मुस्लिम महिलाओं को बुर्के का त्याग करने का सुझाव देकर वह नेता उनको प्रगतिशील एजेंडा में शामिल होने का न्योता दे रहा है।
मुसलमानों पर दबाव
ये ऐसा वक़्त है जब सरकार का सारा ध्यान सिर्फ़ मुसलमानों में सामाजिक सुधार लाने पर है, तीन तलाक़, हज की सब्सिडी और हलाला वग़ैरह पर जिस जोश के साथ चर्चा हो रही है, उससे मुसलमानों पर एक दबाव बना है कि वे इस देश में कैसे रहेंगे इसका फ़ैसला बहुसंख्यक हिंदू करेंगे।
ये तीनों ही बुद्धिजीवी विद्वान लोग हैं, उनकी मेधा पर सवाल उठाने का कोई मतलब नहीं है लेकिन यह भी बिलकुल सही है कि इनकी बातें पूरा सच नहीं हैं. सच्चाई यह है कि सामजिक स्तर पर मुसलमानों से मिलने-जुलने से या उनकी बस्तियों में कुछ समय बिता लेने से मुस्लिम मनोदशा और सामाजिक बंदिशों की परतों को समझ पाना मुश्किल काम है।
इंडियन एक्सप्रेस अखबार में चल रही इस बहस में नई इंट्री ब्राउन विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर आशुतोष वार्ष्णेय ने ली है. उन्होंने राष्ट्रवाद को समझने के लिए भौगोलिक और धार्मिक या जातीय सीमाओं का ज़िक्र किया है और बात को उसी संदर्भ में रखने की कोशिश की है. यह विषय बहुत ही पेचीदा है और इसी से मुसलमानों की अस्मिता का सवाल को बहुत ही गंभीरता से लेने की ज़रूरत है।
जब राष्ट्र और मानवता के किसी मुद्दे को ठीक से समझने की ज़रूरत पड़ती है तो एक इंसान ऐसा है जिसकी बातें खरा सोना होती हैं।
इस बात की पड़ताल करना ज़रूरी होगा कि राष्ट्रवाद, देशप्रेम और मानवता के बारे में महात्मा गांधी क्या कहते हैं।'मेरे सपनों का भारत' में महात्मा गांधी ने लिखा है, 'मेरे लिए देशप्रेम और मानव-प्रेम में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं. मैं देशप्रेमी हूँ, क्योंकि मैं मानव-प्रेमी हूँ. देशप्रेम की जीवन-नीति किसी कुल या कबीले के अधिपति की जीवन-नीति से भिन्न नहीं है. और यदि कोई देशप्रेमी उतना ही उग्र मानव-प्रेमी नहीं है तो कहना चाहिए कि उसके देशप्रेम में उतनी न्यूनता है।
हिंदू मुसलमान तक बन गए, पर नहीं मिली पाकिस्तान में ज़मीन
हिंदू धर्म क्यों छोड़ रहा है ऊना का ये दलित परिवार?
"जिस तरह देशप्रेम का धर्म हमें आज यह सिखाता है कि व्यक्ति को परिवार के लिए, परिवार को ग्राम के लिए, ग्राम को जनपद के लिए और जनपद को प्रदेश के लिए मरना सीखना चाहिए, उसी तरह किसी देश को स्वतंत्र इसलिए होना चाहिए कि वह आवश्यकता होने पर संसार के कल्याण के लिए अपना बलिदान दे सके. इसलिए राष्ट्रवाद की मेरी कल्पना यह है कि मेरा देश इसलिए स्वाधीन हो कि प्रयोजन उपस्थित होने पर सारी ही देश मानव-जाति की प्राणरक्षा के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्यु का आलिंगन करे. उसमें जातिद्वेष के लिए कोई स्थान नहीं है, मेरी कामना है कि हमारा राष्ट्रप्रेम ऐसा ही हो"।
राष्ट्रवाद की सच्ची तस्वीर
महात्मा गांधी ने बिल्कुल साफ़ शब्दों में कहा, 'हमारा राष्ट्रवाद दूसरे देशों के लिए संकट का कारण नहीं हो सकता क्योंकि जिस तरह हम किसी को अपना शोषण नहीं करने देंगे, उसी तरह हम भी किसी का शोषण नहीं करेंगे. स्वराज्य से हम सारी मानव-जाति की सेवा करेंगे।
महात्मा गांधी की बात राष्ट्रवाद की अवधारणा उसको संकीर्णता से बहुत दूर ले जाती है और सही मायनों में यही राष्ट्रवाद की सच्ची तस्वीर है।
महात्मा गांधी अच्छी तरह समझते थे कि देशभक्ति का आधार धर्म नहीं हो सकता और ये भी कि किसी भी धर्म में बदलाव की आवाज़ उसके अंदर से आनी चाहिए, बाहर से आने वाली आवाज़ पर सकारात्मक प्रतिक्रिया की संभावना नहीं है. मिसाल के तौर पर कितने हिंदू अपने धार्मिक-सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन पर मुसलमानों या ईसाइयों की टीका-टिप्पणी सुनना चाहेंगे?
गांधी नैतिक बल में विश्वास रखते थे, फ़िलहाल देश की राजनीति संख्याबल पर चल रही है। मिलते-जुलते मुद्दे