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घंटा निर्माण में जुटे कारीगरों को दिया जाएगा तकनीकी प्रशिक्षण और उपकरण सरकार मुहैया कराएगी बाजार। ...
आगरा:- एक जमाने में पीतल उद्योग की धाक हुआ करती थी। वक्त बदला तो बर्तन बदलते गए। आज घर-घर मैलामाइन के बर्तन स्टेटस सिंबल माने जा रहे हैं। पीतल अब मंदिर के घंटों और जानवरों की घंटियों में नजर आ रही है। यह एक प्राचीन लघु उद्योग है। समय के साथ इसे नई चमक देने के लिए सरकार ने खाका खींचा है।
आगरा-एटा रोड पर स्थित जलेसर तो पुराने जमाने से मशहूर ही घुंघरू-घंटा उद्योग के लिए है। इसके कारीगरों को तकनीकी प्रशिक्षण देने के साथ ही उपकरण भी उपलब्ध कराए जाएंगे। अच्छी कीमत के लिए बाजार मुहैया कराया जाएगा। जलेसर में डेढ़ दर्जन बड़े कारखाने हैं। घर-घर में छोटे स्तर पर गलाई, छिलाई, पॉलिश, फिनिङ्क्षशग जैसे काम किए जाते हैं। इसमें करीब 10 हजार कारीगर और मजदूर लगे हुए हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी वर्षों पुराने ढर्रे पर ही यह कार्य किया जा रहा है। जिससे कारीगरों और मजदूरों का जीवन स्तर ठहरा हुआ है। एक जिला एक जिला उत्पाद (ओडीओपी) में उनकी कौशल क्षमता बढ़ाने के लिए तकनीकी प्रशिक्षण कार्यक्रम तय किया गया है।
शासन से नामित संस्था जलेसर में ही 10 दिन का तकनीकी प्रशिक्षण कराएगी। इसमें लागत, मेहनत और समय कम कर अच्छी गुणवत्ता के उत्पाद बनाना सिखाए जाएंगे।
अभी ऐसे बहाते हैं पसीना
घुंघरू-घंटा बनाने के लिए पीतल को गलाकर सांचों में ढलाई की जाती है। इसके बाद छिलाई, रेताई, कटाई, नक्काशी, पॉलिङ्क्षशग होती है। अभी केवल स्थानीय बड़े व्यापारियों से ही खरीद-फरोख्त होती है।
देशभर में जलेसर के घंटे
देशभर के मंदिरों में जलेसर के घंटे अपनी ध्वनि से माहौल को गुंजायमान रखते हैं। पहले परंपरा मनोकामना पूर्ण होने पर मंदिर में घंटा चढ़ाने की थी इसलिए बड़े पैमाने पर डिमांड भी निकलती थी। ग्रामीण इलाकों में यह दस्तूर आज भी निभाया जा रहा है।
गोधूलि की बेला में सुमधुर ध्वनि
गोधूलि की बेला, जब गायें विचरण के बाद वापस लौटती हैं तो उनके गले में बंधी घंटियों की सुमधुर ध्वनि गांवों में सुनाई दे जाती है। इन घंटियों का निर्माण भी जलेसर में बड़े पैमाने पर होता है। गांवों में लगने वाले मेलों में किसान नई घंटियां खरीदकर ले जाते हैं। गायों के अलावा भैंस, बकरी, ऊंटों के गले में यह शोभा बढ़ाती हैं।
दक्षिण भारत में घुंघरुओं की डिमांड बरकरार
जलेसर में बनने वाले घुंघरुओं की डिमांड दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर राज्यों में आज भी बरकरार है। कथक, भरतनट्यम, कुचीपुड़ी, मणिपुरी नृत्य सीखने के लिए वहां बच्चों में ललक है। घर-घर में बच्चे लोकनृत्य के प्रति उत्साहित रहते हैं और घुंघरुओं की डिमांड भी वहां भरपूर है।
सरकार की अच्छी पहल
जलेसर के पीतल व्यापारी नितिन गोयल कहते हैं कि इस उत्पाद में निखार लाने के बारे में सरकार की पहल अच्छी सोच है। कारीगरों को लाभ मिलेगा। व्यापारी धीरज शर्मा कहते हैं कि हर व्यवसाय की तरह, इसमें भी आधुनिक तरीकों की जानकारी और प्रशिक्षण की जरूरत है।
'ये प्रशिक्षण इसी माह शुरू हो जाएगा। प्रशिक्षित कारीगरों को औजार आदि भी उपलब्ध कराए जाएंगे, इन्हें नवीनतम तकनीक से अपडेट कराया जाएगा। साथ ही कारीगरों का वास्ता सीधे बाजार से हो सके, इसके लिए भी व्यवस्था की जाएगी'।
जमील अख्तर, परियोजना सहायक
जिला उद्योग केंद्र