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अयोध्या एक ओर जहां तीज-त्योहारों पर भी आधुनिकता का रंग चढ़ता जा रहा है तो वहीं शहर से सटा राजा जनक का बसाया जनौरा अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजे है। जनौरा में एक ओर गिरिजाकुंड मंत्रेश्वर महादेव मंदिर जैसे प्राचीन स्थल हैं तो दूसरी ओर होली पर फागुवा गान की पुरानी परंपरा। जनौरा में एक या दो दिन नहीं बल्कि माह भर से ज्यादा होली का उल्लास बिखरा रहता है।...
अयोध्या : एक ओर जहां तीज-त्योहारों पर भी आधुनिकता का रंग चढ़ता जा रहा है तो वहीं शहर से सटा राजा जनक का बसाया जनौरा अपनी सांस्कृतिक विरासत को सहेजे है। जनौरा में एक ओर गिरिजाकुंड, मंत्रेश्वर महादेव मंदिर जैसे प्राचीन स्थल हैं तो दूसरी ओर होली पर फागुवा गान की पुरानी परंपरा। जनौरा में एक या दो दिन नहीं, बल्कि माह भर से ज्यादा होली का उल्लास बिखरा रहता है। इस दौरान न केवल बारी-बारी हर घर में फगुवा का गान होता है, बल्कि होलिका के दिन गांव की महिलाओं और पुरुषों के बीच जवाबी फगुवा होता है। बसंत पंचमी से आरंभ होने वाले फगुवा गान में स्थानीय लोग शामिल होते हैं। इनमें कई तो ऐसे हैं जो गैर जिलों में कार्यरत हैं, लेकिन फगुवा का आनंद लेने के लिए कभी दस दिन पहले तो कभी सप्ताह भर पूर्व ही घर पहुंच जाते हैं।
ऐसी मान्यता है कि राजा जनक ने इस गांव को बसाया था। इसीलिए पहले इसे जनकौरा कहा जाता था। बाद में अपभ्रंश होकर गांव का नाम जनौरा हो गया। मान्यता है कि राजा जनक जब अयोध्या आए तो बेटी की ससुराल की मर्यादा की वजह से इसी स्थान पर रहे थे। उन्होंने यहां एक तालाब भी बनवाया था, जो आज भी गिरिजाकुंड के नाम से विद्यमान है। इसी स्थान पर मंत्रेश्वर महादेव मंदिर भी है। माना जाता है कि मंत्रेश्वर महादेव मंदिर जिस स्थान पर है, वहीं पर भगवान राम और काल के बीच वार्ता हुई थी। इसका कुछ हिस्सा ग्रामसभा में आता है तो कुछ नगर निगम में। प्राचीनता के साथ ही यह गांव अपनी सांस्कृतिक विरासत के नाते बेहद खास है। बसंत पंचमी के दिन मंत्रेश्वर महादेव मंदिर पर पहले देवी गीत और उसके बाद भोलेनाथ को 'बसंत पंचमी के दिन 'लगिहै बसंत, खिलिहैं कलियां मधुकर मधुरै स्वर गइहैं.' सुनाकर फाग गान का सिलसिला शुरू होता है। स्थानीय लोगों की टोली बारी-बारी हर घर पर फगुवा गाती है। होलिका के दिन जहां गांव की महिलाओं और पुरुषों में जवाबी फगुवा होता है तो होली के दिन पुरुषों की टोली ढोलक और मजीरा लेकर हर घर पहुंचती है और 'सदा आनंद रहो यहि द्वारे.' गाकर लोगों को शुभकामना देते हैं।
फाग, होरी, उलारा व झूमर
जनौरा में फगुवा का आयोजन संगीत की प्राचीन विधा को भी संजोये है। फगुवा की शाम सजती है तो शुरुआत तो फाग से होती है और उसके बाद सिलसिला चल निकलता है। करीब दो से ढाई घंटे के दौरान फाग के साथ ही बेलवाई, होली, उलारा और झूमर गाया जाता है। जोश के साथ गाये जाने वाले उलारा और झूमर लोगों में होली का उल्लास बिखेरते हैं। इनमें 'परदेसवा न जाओ बीतै न अइहैं फगुनवा', 'जौने बालम करै न पयाने फगुनवा निराने', 'दुई दिन के बहार. प्यारे भंवर फुलवरिया' आदि गाया जाता है
इन्होंने संभाल रखी है परंपरा
जनौरा की इस परंपरा को संभालने में स्थानीय लोगों की सबसे अहम भूमिका है। इनमें अरविद सिंह, राजबहादुर सिंह, मयंक सिंह बालू, अरुण सिंह प्रकाश, अवेधश सिंह, रिकू सिंह, राजेश सिंह मानव, वंशगोपाल सिंह हैं तो युवा शुभम सिंह, शिवम सिंह, विशाल सिंह आदि की भागीदारी रहती है। स्थानीय लोग दिन में तो अपने कामकाज निपटाने हैं, शाम होते ही ढोल-मजीरा लेकर फगुवा की मस्ती और उल्लास बिखेरते है
इन्होंने बढ़ाया मान
एक ओर जहां जनौरा से राजा जनक का सीधा नाता रहा है तो कई और लोगों ने भी इसका मान बढ़ाया है। राज्यसभा के पूर्व सदस्य व वरिष्ठ पत्रकार राजनाथ सिंह सूर्य, जिला पंचायत के पूर्व अध्यक्ष दिवंगत अखंडप्रताप सिंह, पूर्व विधायक दिवंगत सुरेंद्र सिंह, नगरपालिका पूर्व अध्यक्ष दिवंगत गयाप्रसाद सिंह जैसी नामचीन शख्सियतों से जनौरा गांव गौरवांवित है।