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LokSabha Election 2019: जानते हैं क्या है, आदर्श चुनाव आचार संहिता के नियम कानून
RGA news
चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के साथ ही देश भर में आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो चुकी है। समझना जरूरी है कि आखिर आदर्श चुनाव आचार संहिता क्या है और इसके विविध आयाम क्या-क्या हैं।...
आगामी लोकसभा के लिए चुनाव आयोग द्वारा चुनावों की तिथियों की घोषणा के साथ ही ‘आदर्श चुनाव आचार संहिता यानी मॉडल कॉड ऑफ कंडक्ट’ लागू हो चुकी है। स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव लोकतंत्र के प्रमुख आधार हैं। इसमें मतदाताओं के बीच अपनी नीतियों तथा कार्यक्रमों को रखने के लिए सभी उम्मीदवारों और सभी राजनीतिक दलों को समान अवसर प्रदान किया जाता है। इस संदर्भ में मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट यानी एमसीसी का उद्देश्य सभी राजनीतिक दलों के लिए बराबरी का समान स्तर उपलब्ध कराना होता है।
इसके अतिरिक्त आदर्श चुनाव संहिता प्रचार अभियान को निष्पक्ष तथा स्वस्थ बनाए रखने के लिए व तमाम राजनीतिक दलों के बीच झगड़ों और विवादों को निपटाने से लेकर उन्हें टालने तक में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसका मकसद केंद्र या राज्य की सत्ताधारी पार्टी को आम चुनाव में अनुचित लाभ लेने से सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग रोकना है। आदर्श आचार संहिता लोकतंत्र के लिए भारतीय निर्वाचन प्रणाली का विशिष्ट योगदान है।
मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट का प्रभाव:
चुनाव आचार संहिता लागू होते ही शासन और प्रशासन में कई अहम बदलाव आ जाते हैं। राज्य और केंद्र सरकार में कर्मचारी चुनावी प्रक्रिया पूरी होने तक चुनाव आयोग के कर्मचारी की तरह काम करते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि आदर्श आचार संहिता लागू होते ही देश भर में केंद्र सरकार तथा राज्य सरकारें कोई भी नीतिगत निर्णय नहीं ले सकते हैं और न ही सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल चुनावी कार्य के लिए कर सकती है। आदर्श चुनाव आचार संहिता राजनीतिक दलों तथा विशेषकर उम्मीदवारों के लिए आचरण और व्यवहार का मानक है।
इसकी विशेषता यह है कि यह दस्तावेज राजनीतिक दलों की सहमति से अस्तित्व में आया और विकसित हुआ। वर्ष 1960 में केरल विधानसभा में पहली बार इसे लागू किया गया। इसमें यह बताया गया कि राजनीतिक दल क्या करें और क्या नहीं करें। वर्ष 1962 में लोकसभा चुनाव में आयोग ने इस संहिता को सभी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों में वितरित किया तथा व्यापक पैमाने पर इसका पालन हुआ। वर्ष 1967 में इसका पालन लोकसभा तथा राज्य विधानसभा चुनावों में हुआ। वर्ष 1968 में निर्वाचन आयोग ने राज्य स्तर पर सभी राजनीतिक दलों के साथ बैठकें की और स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए व्यवहार के न्यूनतम मानक के रूप में इस संहिता का वितरण किया।
वर्ष 1974 में आयोग ने यह भी सुझाव दिया कि जिला स्तर पर जिलाधिकारी के नेतृत्व में राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को सदस्य के रूप में शामिल कर समिति गठित की जाए, ताकि आचार संहिता के उल्लंघन के मामलों पर विचार हो सके। वर्ष 1979 में निर्वाचन आयोग ने राजनीतिक दलों से विचार विमर्श कर आचार संहिता का दायरा बढ़ाते हुए एक नया भाग जोड़ा, जिसमें ‘सत्तारूढ़ दल’पर प्रतिबंध लगाने का प्रावधान हुआ, ताकि सत्ताधारी दल अन्य पार्टियों तथा उम्मीदवारों की अपेक्षा अधिक लाभ उठाने के लिए शक्ति का दुरुपयोग नहीं करें।
वर्ष 1991 में तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन ने आदर्श आचार संहिता को और भी मजबूती प्रदान की। वर्ष 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्वाचन आयोग को ‘चुनाव घोषणापत्र’ संबंधी संहिताओं को आदर्श आचार संहिता में जोड़ने का आदेश दिया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर चुनाव आयोग ने इन प्रावधानों को आदर्श आचार संहिता में वर्ष 2014 में जोड़ा। यानी आचार संहिता का सशक्तीकरण अब भी जारी है।
संहिता के क्रियान्वयन तिथि पर विवाद और सुप्रीम कोर्ट के आदेश
आदर्श आचार संहिता को देश में शीर्ष न्यायालय से न्यायिक मान्यता मिली है। इसके प्रभाव में आने की तिथि को लेकर उत्पन्न विवाद में भारत संघ बनाम हरवंश सिंह जलाल मामले में 26 अप्रैल 2001 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था, जिसमें कहा गया कि चुनाव तिथियों की घोषणा संबंधी निर्वाचन आयोग की प्रेस विज्ञप्ति जारी होने की तिथि से चुनाव आचार संहिता लागू हो जाएगी। प्रेस विज्ञप्ति जारी होने के दो सप्ताह बाद अधिसूचना जारी की जाती है। इस तरह सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू होने की तिथि से जुड़ा विवाद हमेशा के लिए समाप्त हो गया।
आचार संहिता के महत्वपूर्ण प्रावधान
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 324 के अंतर्गत निर्वाचनों का निरीक्षण, निर्देशन एवं नियंत्रण करने के लिए चुनाव आयोग की स्थापना की गई है। इसका मुख्य मकसद राजनीतिक दलों तथा उम्मीदवारों से चुनावी संहिता का पालन कराना होता है। चुनावी संहिता में सामान्य आचरण, बैठकों, जुलूस, मतदान दिवस, मतदान केंद्र, पर्यवेक्षक, सत्ता में पार्टी और चुनाव घोषणा पत्र सहित कुल आठ प्रावधान हैं। पहला, सामान्य आचार संहिता के अंतर्गत राजनीतिक पार्टियों को अपनी प्रतिद्वंद्वी पार्टियों की पिछले रिकॉर्ड के आधार पर ही आलोचना करनी होगी। मतदाताओं को लुभाने के लिए जातीय और सांप्रदायिक लाभ उठाने से बचना होगा। मतदाताओं को किसी भी प्रकार का रिश्वत नहीं देना होगा।
‘मीटिंग’ के अंतर्गत पार्टियों को अगर कोई बैठक या सभा करनी होगी, तो उन्हें स्थानीय पुलिस को जानकारी देनी होगी, जिससे पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम संभव हो सके। इसके तीसरे प्रावधान ‘चुनाव प्रचार’ के अंतर्गत अगर दो या दो से अधिक पार्टियां एक ही रूट में चुनाव प्रचार के लिए निकली हैं, तो आयोजनकर्ताओं को आपस में यह तय करना होगा कि वे आपसी संघर्ष नहीं करेंगे। हिंसा पूर्णत: प्रतिबंधित है। चतुर्थ, ‘पोलिंग डे’ के अंतर्गत सभी पार्टियों के कार्यकर्ताओं को पहचान पत्र रखना होगा। इसमें किसी पार्टी का नाम नहीं होगा और न ही चुनाव चिह्न और न ही किसी उम्मीदवार का नाम होगा। पंचम, ‘पोलिंग बूथ’ के अंतर्गत केवल मतदाता, जिनके पास चुनाव आयोग के मान्य पहचान पत्र हैं, वे ही पोलिंग बूथ के अंदर जा सकेंगे।
छठे प्रावधान में ‘निरीक्षक’ के अंतर्गत चुनाव आयोग पोलिंग बूथ के बाहर एक निरीक्षक तैनात करेगा, ताकि अगर संहिता का कोई उल्लंघन कर रहा है, तो उसकी शिकायत की जा सके। सातवां प्रावधान ‘सत्ताधारी पार्टी’ से संबंधित है। इस दौरान सत्ताधारी पार्टियों के मंत्रियों को किसी भी तरह की आधिकारिक दौरे की मनाही होगी, ताकि वे अपने आधिकारिक दौरे पर चुनाव प्रचार न करें। उन्हें किसी तरह के लोकलुभावन वादे नहीं करने होंगे। संहिता का आठवां प्रावधान ‘चुनावी घोषणापत्र’ है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर इसे जोड़ा गया है। इसके अनुसार चुनावी घोषणापत्र में बताए गए वादों को पूरा करना होगा
क्या कानूनी रूप से बाध्यकारी है संहिता?
मॉडल कॉड ऑफ कंडक्ट कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है। इसका कोई वैधानिक आधार भी नहीं है। यदि कोई प्रत्याशी या राजनीतिक दल आदर्श चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन करता है, तो चुनाव आयोग नियमानुसार कार्रवाई कर सकती है। उम्मीदवार को चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है, आपराधिक मुकदमा भी दर्ज कराया जा सकता है और संबंधित व्यक्ति को जेल भी भेजा जा सकता है। अब प्रश्न उठता है कि जब आदर्श चुनाव आचार संहिता पर कोई कानूनी बाध्यता नहीं है, तो चुनाव आयोग कार्रवाई कैसे करती है? इसके लिए चुनाव आयोग आइपीसी- 1860, सीआरपीसी- 1973 तथा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम- 1951 के धाराओं का प्रयोग करती है। उदाहरण के लिए पूजा स्थलों का उपयोग चुनाव प्रचार के लिए करना मूलत: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम- 1951 के अंतर्गत आपराधिक कार्य है। इसी तरह चुनाव में मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए रिश्वत देना मूलत: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम- 1951 तथा आइपीसी की धारा-177 बी के अंतर्गत प्रतिबंधित है। ऐसे में अगर कोई इसका उल्लंघन करता है, तो चुनाव आयोग उपरोक्त दोनों कानूनों का प्रयोग करती है। इसी तरह चुनाव के समय शराब वितरण के आरोपों में भी चुनाव आयोग जनप्रतिनिधित्व अधिनियम- 1951 के अंतर्गत कार्रवाई करती है
आचार संहिता को विधिक दर्जा चुनाव आयोग का कहना है कि आदर्श संहिता को कानूनी दर्जा देने की कोई विशेष जरूरत नहीं है। सामान्यत: ‘चुनाव’ कार्यक्रम घोषित होने के लगभग 45 दिनों के भीतर निपटा लिया जाता है। इसलिए इससे संबंधित शिकायतों को तेजी से निपटाने का महत्व है। समय पर इसका निपटान नहीं होने से ये महत्वहीन हो जाते हैं। कानून और विधिक मामलों की स्टैंडिंग कमिटी ने 2011 में कहा कि आदर्श आचार संहिता को मूलत: जनप्रतिनिधित्व अधिनियम- 1951 का भाग बना देना चाहिए। वर्ष 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति ने भी चुनाव सुधारों के अंतर्गत आदर्श आचार संहिता को सांविधिक बनाने की मांग की थी।
संहिता का उल्लंघन और आयोग
आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के मामले में चुनाव आयोग केवल नोटिस दे सकता है या एफआइआर दर्ज करा सकता है। इसका प्रभाव यह होता है कि नोटिस की बात आम जनता तक पहुंच जाती है और नेता पर जन दबाव पड़ता है। यदि इससे संबंधित अधिकार कोर्ट को दिया जाएगा, तो लंबी अवधि में निपटारे के कारण आचार संहिता का महत्व खत्म हो जाएगा। ऐसा होने पर चुनाव आयोग के पास जो हाथी के दिखाने वाले दांत हैं, वो भी टूट जाएंगे। चुनाव की प्रक्रिया खत्म हो जाने के बाद आचार संहिता के संदर्भ में दर्ज मामलों पर शायद ही कोई प्रगति होती है। अगर कुछ प्रगति होती भी है, तो कमजोर कानूनों के कारण आचार संहिता तोड़ने वाला व्यक्ति जमानत पर शीघ्र रिहा हो जाता है। चुनाव के बाद मामलों को मुकाम पर पहुंचाने में आयोग बेबस है। जब आचार संहिता जारी होती है, तो संपूर्ण प्रशासन आयोग के अधीन होता है और उसी के दिशा निर्देश का पालन करता है। परंतु इस अवधि के समाप्त होने के बाद प्रशासन प्राय: इन मामलों का समुचित फोलोअप नहीं करता है। बढ़ाई जाए आयोग की ताकत प्राय: आचार संहिता के उल्लंघन पर निर्वाचन आयोग दंडात्मक कार्रवाई से बचता ही है। लेकिन 2014 के लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग ने दो प्रमुख नेताओं के चुनाव प्रचार पर रोक लगा दी थी। आयोग ने इसके लिए अपनी असाधारण शक्तियों का सहारा लिया था। इस समय चुनाव सुधार के लिए नियमों के निर्माण के लिए चुनाव आयोग विधायिका पर निर्भर है। आवश्यक है कि नियमों के निर्माण तथा उसके क्रियान्वयन की शक्तियां आयोग को मिलें। फेक न्यूज भी गंभीर चुनौती है, जिसे चुनावी अपराध घोषित करने की मांग स्वयं चुनाव आयोग ने की है। यद्यपि इस वर्ष आचार संहिता को लागू करने के लिए चुनाव आयोग ने लोगों के लिए सी-विजिल’ एप बनाया है जिस पर की गई शिकायतों पर चुनाव आयोग त्वरित रूप से सुनवाई करेगा। कुल मिलाकर निष्पक्ष और स्वतंत्र निर्वाचन के लिए चुनाव आयोग की शक्तियों को और भी ज्यादा बढ़ाने की आवश्यकता है।