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चक्का (हरहुआ) निवासी 101 वर्षीय पहलवान लखपत गिरि बताते हैं कि पहले लोग अभाव की जिंदगी व्यतीत करते हुए खुश रहा करते थे। सभी एक-दूसरे का सम्मान करते थे। ...
वाराणसी;- तब रिक्शे पर सवार होकर नेता जी गांव में आते थे। ग्रामीणों के बीच बैठते थे और अपनी बात कहते थे। दरवाजे पर जो मिला उसे सहर्ष खाते थे और ठंडा पानी पीकर संतुष्ट हो जाते थे लेकिन तब और अब में काफी अंतर आ गया है। अब तो सहयोग की जगह स्वार्थ की राजनीति ने ले लिया है।
चक्का (हरहुआ) निवासी 101 वर्षीय पहलवान लखपत गिरि बताते हैं कि पहले लोग अभाव की जिंदगी व्यतीत करते हुए खुश रहा करते थे। सभी एक-दूसरे का सम्मान करते थे। सुख-दुख में खड़े होने की परंपरा थी। गांव में अपनापन था, छोटे-बड़े का लोग लिहाज करते रहे। खेती का काम करके दो से चार जोड़ी बैल, भैंस व गाय पालकर लोग खुश रहते थे। चुनाव के दौरान भी लोग दूध-दही खाकर अखाड़े पर दंड बैठकी और कबड्डी नहीं छोड़ते थे। वरुणा नदी से शेवार उखाड़कर पशुओं के लिए चारे की व्यवस्था होती रही। अब जमाना बदल गया और सुविधा बढ़ गई।
हर पार्टी के नेता रिक्शा-ट्राली पर लाउडस्पीकर लगाकर कजरी, बिरहा धुन पर प्रचार करते हुए पहुंचते थे और अपनी पार्टी का पर्ची, बिल्ला, झंडा बांटते थे। दोपहरिया में रुककर पानी पीते और पेड़ के नीचे आराम करते समय अपनी पार्टी की बड़ाई करते हुए आश्वाशन देते कि सड़क पक्की बन जाएगी, बिजली गांव में आएगी, स्कूल व अस्पताल खुलेगा।
उन दिनों यह सब सुविधा गांव में नहीं थी। वोट देने के लिए अदब के साथ चिरौरी करते थे। चुनाव आते ही खूब हो-हल्ला होता, उम्मीदवार को लेकर चर्चा भी होती रही। कांग्रेस, कम्युनिस्ट और जनसंघ प्रमुख पार्टियां थीं। नेता घर पर बैठते तो उनको खूब खिला-पिलाकर सम्मान दिया जाता था और गांव के बाहर तक छोडऩे करी परंपरा थी। 25 साल की उम्र में पहली बार वोट देने तीन किमी दूर कई गांव के लोग साथ में झुंड बनाकर नंदापुर पैदल गए थे। बैलेट पेपर लेकर पर्दा के पीछे जाकर मुहर लगाते थे। रास्ते भर चर्चा होती रही कि इस चुनाव चिह्न पर मुहर लगाना है, ताकि गांव में सड़क व बिजली जल्दी आ जाए।