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पिछले हफ्ते केरल के पलक्कड़ जिले के अगाली नगर में कुछ लोगों ने तीस साल के आदिवासी व्यक्ति मधु को एक दुकान से सामान-चोरी के शक में पीट-पीट कर मार डाला। एक आरोपी ने मौके की सेल्फी भी ली।
समाज के भीड़ में बदलते जाने का अहसास रोजाना अनेक तरह से होता है। बहुत सारे लोगों की मौजूदगी के बीच भी कोई अपने को भयभीत या असहाय महसूस करता है। कुछ लोग मिलकर किसी को पीट कर चले जाते हैं, और ढेर सारे लोग तमाशाई बने रहते हैं। कोई घायल होकर तड़पता रहता है, और तमाम वाहन चालक उस ओर से आंख मूंदे गुजरते रहते हैं। इस तरह के और भी मंजर गिनाए जा सकते हैं। पर कई बार लगता है समाज भीड़ ही नहीं, पागल या हिंसक भीड़ में बदलता जा रहा है। कभी किसी बहाने, तो कभी और नाम पर कोई झुंड किसी अकेले असहाय आदमी पर टूट पड़ता है, अपनी हिंसा को सही मानते हुए। जिसे अंग्रेजी में मॉब लिंचिंग कहते हैं, वैसी घटनाओं के उदाहरण यों तो हर कालखंड में मिल जाएंगे, पर इधर के तीन-चार साल में ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। हमलावर भीड़ को या भीड़ में शामिल हमलावरों को मानो यह भरोसा रहता है कि चूंकि वे इक्का-दुक्का नहीं हैं, इसलिए पहचाने नहीं जाएंगे। पुलिस भी अकसर अज्ञात आरोपियों के खिलाफ मामला दर्ज करती है। अगर आरोपियों की पहुंच कुछ ऊपर तक हो, या सत्ता के गलियारे में विचरण करते लोगों की दिलचस्पी उन्हें बचाने में हो, तो आरोपी वाकई अज्ञात ही बने और बचे रहते हैं। सांप्रदायिक दंगों के दौरान न पहचाने जाने और न पकड़े जाने का यह विश्वास और पुख्ता रहता है।