भाजपा-जदयू की बनी रहेगी ये 'दोस्ती', अनुच्‍छेद 370 से तीन तलाक तक पर 'खटास' भी कम नहीं

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RGA न्यूज़ बिहार पटना

तीन तलाक हो या अनुच्‍छेद 370 भाजपा और जदयू के बीच जब किसी मुद्दे पर मतभेद होता है गठबंधन टूटने के कयास शुरू हो जाते हैं। विरोधियों को उम्‍मीदें बढ़ जाती हैं। ..

पटना :- तीन तलाक हो या अनुच्‍छेद 370, भाजपा और जदयू के बीच जब किसी मुद्दे पर मतभेद होता है, गठबंधन टूटने के कयास शुरू हो जाते हैं। खास कर उन लोगों की उम्मीद बढ़ जाती है, जिन्हें लगता है कि गठबंधन टूटने की हालत में लडऩे लायक विधानसभा की सीटें बढ़ जाएंगी। उन्हें टिकट भी मिल जाएगा। दूसरे तबके में भी बेचैनी बढ़ती है। यह दोनों दलों के विधायकों का तबका है। इन्हें डर सताता है-गठबंधन नहीं रहा तो टिकट भले ही मिल जाए, जीतने की गारंटी नहीं रहेगी। इसी उम्मीद और बेचैनी में गठबंधन टूटने या बने रहने के कयास चलते रहते हैं। 

विधायकों जैसी बेचैनी नेतृत्‍व में भी
उम्मीदवारों की बात छोड़ दें तो विधायकों जैसी बेचैनी नेतृत्व के स्तर पर भी है। दोनों दलों के पास अकेले लड़कर परास्त होने का अनुभव है तो साथ लड़कर सर्वश्रेष्ठ जीत हासिल करने का रिकार्ड भी है। यही वह तत्व है, जो दोनों को एक साथ रहने के लिए मजबूर भी करता है। भाजपा को दूसरे दलों के साथ दोस्ती का तजुर्बा भी है। फिर भी भरोसेमंद पार्टनर जदयू ही है। जीत की गारंटी उसे जदयू के साथ रहने पर ही मिलती है। जदयू को भी दूसरे के साथ चुनावी कामयाबी मिली। लेकिन, अधिक दिनों तक टिक नहीं सकी। 2015 का विधानसभा चुनाव इसका उदाहरण है। नीतीश कुमार सहयोगी दल का दबाव झेल नहीं पाए। अंतत: उन्हें सरकार चलाने के लिए भाजपा से दोस्ती करनी पड़ी।

तब नमो लहर का था दौर
जदयू की तरह भाजपा को भी राज्य की राजनीति में दूसरे दलों की दोस्ती रास नहीं आती है। लोजपा और रालोसपा जैसे दलों के साथ उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में जबरदस्त कामयाबी मिली। वह नमो लहर का दौर था। इसके बावजूद 2009 के 32 सीटों पर जीत का रिकार्ड नहीं टूटा। उसके गठबंधन को 2009 में लोकसभा की एक सीट कम मिली थी, जबकि 2019 में रालोसपा और हम जैसी पार्टियां एनडीए से अलग हो गई थीं। सिर्फ जदयू जुड़ा था। 39 सीट का अविश्वसनीय आंकड़ा मिल गया।

घाटा उठाने में जदयू भी अछूता नहीं 
इसके उलट, 2014 के लोकसभा में 31 सीट जीतने वाला एनडीए अगले साल हुए विधानसभा चुनाव में 58 सीटों पर सिमट गया, जबकि राजद-कांग्रेस के साथ गठबंधन कर जदयू सत्ता में आ गया। ऐसी बात नहीं है कि अलग रहने पर भाजपा को ही घाटा उठाना पड़ा है। जदयू भी अछूता नहीं रहा है। उदाहरण 2014 का लोकसभा चुनाव है। इसमें 38 सीटों पर लडऩे वाला जदयू दो सीट जीत पाया। यानी अकेले अपने दम पर सरकार बनाने की क्षमता हासिल करना अभी उसके वश में भी नहीं है। 

गठबंधन की जानें दो वजह
पहली वजह: भाजपा और जदयू का जनाधार आपस में कभी टकराता नहीं है। वे एक साथ वोट करते हैं। राज्य सरकार की योजनाओं के कार्यान्वयन में विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच कभी भेदभाव नहीं किया। यहां तक कि किसी भी स्तर पर अल्पसंख्यकों की अनदेखी नहीं की गई। 
दूसरी वजह: भाजपा ने कभी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के किसी काम में हस्तक्षेप नहीं किया। अफसरों के तबादले हों या शीर्ष पदों पर तैनाती, भाजपा ने कभी दखल नहीं किया।

विधानसभा चुनाव राजद ही रहेगा मुद्दा
राजद को भले ही लोकसभा चुनाव में एक भी सीट हासिल नहीं हुई, लेकिन उसके समर्थक और विरोधी अब भी पहले की तरह ही सक्रिय हैं। विधानसभा चुनाव में राजद मुद्दा रहेगा ही। उसे रोकने के नाम पर ही सही, भाजपा-जदयू का साथ रहना अपरिहार्य है। जदयू के राजद से हाथ मिलाने की चर्चा भी होती रहती है, लेकिन यह संभवत: ऐसा विकल्प है, जिसे नीतीश कुमार शायद ही दूसरी बार स्वीकार करें।

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