बिहार की राजनीति में नई एंट्री: न सेना न सिपहसालार, फिर भी सियासी मोर्चे पर सरदार

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RGA न्यूज़ पटना

बिहार की राजनीति में नई हलचल देखी जा रही है। विभिन्न पार्टी के कुछ नाराज नेताओं ने एक साथ मिलकर तीसरा मोर्चा बनाया है। इसका नाम रखा है बिहार नवनिर्माण मोर्चा। जानिए इसके बारे में.....

पटना:- बिहार में तीसरे मोर्चे की फिर कोशिश की जा रही है। इसकी पहल ऐसे नेता कर रहे हैं, जिन्हें पिछले लोकसभा चुनाव में कोई सहारा नहीं मिला था। न टिकट दिया गया, न भाव। न आश्वासन। न गठबंधन। दोनों गठबंधनों की ओर से सियासत के इन छोटे सरदारों को मंझधार में बेसहारा छोड़ दिया गया। अब आगे की अभी से तैयारी है। इसलिए कि मौका आने पर चूक न जाएं। छूट न जाएं। 

पूर्व सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव, अरुण कुमार, नरेंद्र सिंह और रेणु कुशवाहा की चौकड़ी तैयार हो गई है। चारों का प्रोफाइल कभी बड़ा रहा है। किंतु अब किसी न किसी दल या नेता से लगातार चोट खाते आ रहे हैं। कोई राजद से। कोई जदयू से। कोई भाजपा से। कोई रालोसपा से। इसलिए मोर्चा बनाकर एक छतरी के नीचे आ रहे हैं। मोर्चा के नाम का खुलासा भी कर दिया है।

बिहार नवनिर्माण मोर्चा। बेशक नाम आकर्षक है। किंतु काम कितना सार्थक होगा और दोस्ती कबतक टिकेगी, यह विधानसभा चुनाव के नतीजे के बाद तय होगा। वैसे चारों का सियासी इतिहास सबके सामने है। हार हो या जीत हो...दोस्त बदलते रहना है। राह अलग पकडऩी है। प्रत्येक चुनाव के बाद ऐसा ही होता रहा है। अबकी भी भिन्न कैसे होगा? 

बहरहाल, चारों को अहसास है कि उनके लिए दोनों गठबंधनों में जगह की कमी है। इसलिए अपना कारवां अलग बनाने में ही कल्याण है। इंतजार है दोनों मोर्चे से वंचित होने वाले दलों और नेताओं का। लोग साथ आते जाएंगे। कारवां बढ़ता जाएगा। इसीलिए मांझी पर पप्पू यादव डोरे डाल रहे हैं। रणनीति है कि महागठबंधन का खटपट अगर आगे बढ़ा तो छोटे दलों और सरदारों को साथ लेकर मोर्चा को मजबूत किया जा सकता है।

कांग्रेस अगर साथ देना चाहे तो ठीक है, नहीं तो वामपंथी दल भी चलेंगे। दावा किया जा रहा है कि भाकपा के पोस्टर ब्वॉय कन्हैया कुमार से भी बात हो चुकी है। सहमति मिल चुकी है। हालांकि सच सामने आना अभी बाकी है। गठन से पहले सवाल भी उठाए जाने लगे हैं। बिहार में तीसरा मोर्चा बनाने का प्रयास तो कई बार हुआ है, किंतु चुनावों में अपेक्षित परिणाम कभी नहीं आया है। 

चारों के लिए मौका है

नेतृत्व के मुद्दे पर महागठबंधन में तकरार है। सारे घटक दलों के प्रमुख नेता सदारत के लिए बेकरार हैं। सबसे बड़ा घटक दल राजद अपने ही कारणों से धीरे-धीरे ओझल और कमजोर होता जा रहा है। इसलिए साथी दलों को भविष्य की चिंता है। भाजपा-जदयू की संयुक्त ताकत और रणनीति से मुकाबला आसान नहीं होगा।

जीतनराम मांझी, उपेंद्र कुशवाहा और मुकेश सहनी ने राजद की दोस्ती को आजमाकर देख लिया है। लोकसभा चुनाव में जो शर्मनाक शिकस्त मिली चुकी है, उससे बड़ी आगे क्या होगी? सतर्क होना लाजिमी है। भाजपा के विरोध में खड़े रहना कांग्रेस की मजबूरी है। राजद-कांग्रेस की राह अगर अलग हुई तो तीसरे मोर्चे के लिए प्रयासरत नेताओं के सपने साकार हो सकते हैं। 

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