RGAन्यूज़
रेड फंगस से पर्वतीय राज्यों में होगी व्यावसाकिक खेती, सुधारेगी किसानों की आर्थिक हालत
रेड फंगस (लाल फफूंद) मानवमित्र होने के साथ विभिन्न रोगों से लडऩे की ताकत भी देता है। गैनोडर्मा परिवार के इस औषधीय फंगस यानी मशरूम पर हिमालयी राज्यों के पहले शोध ने सेहत के साथ आर्थिकी सुधार की राह दिखाई
, अल्मोड़ा : कोरोना काल में ब्लैक, व्हाइट और यलो फंगस मानवजाति के लिए नया खतरा बनकर उभरे हैं। वहीं रेड फंगस (लाल फफूंद) मानवमित्र होने के साथ विभिन्न रोगों से लडऩे की ताकत भी देता है। गैनोडर्मा परिवार के इस औषधीय फंगस यानी मशरूम पर हिमालयी राज्यों के पहले शोध ने सेहत के साथ आर्थिकी सुधार की राह दिखाई है। उत्तराखंड में प्रयोग सफल होने के बाद उत्साहित विज्ञानी पहाड़ के ठंडे इलाकों में चीन की तर्ज पर रेड मशरूम की व्यावसायिक खेती को विस्तार देने की तैयारी में जुट गए हैं।
हिमालयी राज्यों में सघन मिश्रित वन क्षेत्रों में प्राकृतिक रूप से उगने वाले लाल मशरूम की अब तक व्यावसायिक खेती नहीं होती थी। राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन की शोध परियोजना के तहत विज्ञानियों ने वन अनुसंधान संस्थान देहरादून की लैब में लकड़ी के टुकड़ों में लाल मशरूम के बीज लगाकर इसे प्राकृतिक तापक्रम में उगाने में सफलता हासिल कर ली है। अब उत्तराखंड व अन्य हिमालयी राज्यों में पॉपुलर के साथ ही अन्य बहुपयोगी वनस्पति प्रजातियों की लकडिय़ों पर उगा किसानों तक पहुंचाने की योजना है।
दो वर्ष में मिले सुखद परिणाम
जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण शोध संस्थान कोसी कटारमल (अल्मोड़ा) के राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन के तहत दो वर्ष पूर्व वीर चंद्र गढ़वाली कृषि वानिकी विवि नई टिहरी को शोध परियोजना दी गई थी। विभागाध्यक्ष डा. अरविंद बिजल्वाण की अगुआई में सेंटर फॉर बिजनेस एंड इंटरप्रेन्योरशिप डेवलपमेंट (सीबेड) से जुड़े वन अनुसंधान संस्थान (एफआरआइ) देहरादून के विज्ञानी डा. निर्मल एसके हर्ष आदि ने लाल मशरूम उगाने में अहम योगदान दिया।
ऐसे उगाया जा रहा
पॉपुलर व अन्य लकडिय़ों की छाल निकाल छोटे टुकड़े किए गए। शोधन कर गैनोडर्मा का कवक जाल तैयार किया गया। उनमें मशरूम बीज लगा बंद या नमी वाले कमरों में रख दिए गए। यह मार्च से अगस्त के बीच तैयार हो जाता है। लकड़ी के एक गुटके से सीजन में तीन बार फसल ली जाती है। लाल मशरूम की कीमत बाजार में पांच से छह हजार रुपये प्रति किलो है। अब कुमाऊं गढ़वाल में बांज, खडि़क, भीमल आदि पेड़ों की लकडिय़ों में इसे उगाया जाएगा।
इन गांवों में पहला प्रयोग
विकासनगर ब्लॉक के शेरपुर, जौन ब्लॉक में मझगांव, नौगांव, केलवाल व सेमवाल गांव टिहरी (गढ़वाल) में प्रयोग किया गया। यहां एससी, एसटी व पिछड़े वर्ग के लगभग सौ परिवारों को परियोजना से जोड़ दिया गया है। विज्ञानी इन्हें बाजार मुहैया कराने पर भी विचार कर रहे हैं।
इसलिए कहते हैं चिरंजीवी मशरूम
इसे ऋषि, अमरता या चिरंजीवी मशरूम भी कहते हैं। हृदय, किडनी व चर्म रोग, कैंसर, गठिया, रक्तचाप आदि में यह कारगर है। दवा व दंतमंजन बनाने में भी इसका इस्तेमाल होता। विटामिंस, एंटीऑक्सीडेंट, प्रोटीन, खनिज पदार्थ, फोलिक एसिड समेत 400 से ज्यादा रासायनिक अवयवों का यह खजाना है।
किसानों के लिए शानदार परियोजना
प्रो. किरीट कुमार, नोडल अधिकारी जीबी पंत संस्थान कोसी कटारमल ने बताया कि हिमालयी राज्यों में आजीविका के आर्थिक विकल्प सुझाने में मिशन की इस परियोजना का अनुसंधान उल्लेखनीय है। यह अभिनव प्रयोग व्यावसायिक खेती कर किसानों को परियोजना से जोड़ उन्हें स्वरोजगार देने में मील का पत्थर साबित होगा। परियोजना प्रमुख डा. अरविंद बिजल्वाण ने बताया कि एफआरआइ की तकनीक पर हम इस परियोजना में सफल हुए हैं। यह किसानों के लिए लाभकारी होगा। हमने उत्तराखंड की स्थानीय बांज, खडि़क, भीमल आदि वृक्ष प्रजातियों की लकड़ी पर भी ऋषि मशरूम उगाने में सफलता पा ली है।