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विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश में कांग्रेस के दिग्गज महत्वाकांक्षा और वर्चस्व की जंग में उलझ गए हैं।
विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश में कांग्रेस के दिग्गज महत्वाकांक्षा और वर्चस्व की जंग में उलझ गए हैं। नए नेता प्रतिपक्ष के चयन और प्रदेश अध्यक्ष बदलने के पीछे की पटकथा को इसी जंग का नतीजा माना जा रहा है।
देहरादून। विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश में कांग्रेस के दिग्गज महत्वाकांक्षा और वर्चस्व की जंग में उलझ गए हैं। नए नेता प्रतिपक्ष के चयन और प्रदेश अध्यक्ष बदलने के पीछे की पटकथा को इसी जंग का नतीजा माना जा रहा है। चुनाव के बाद सत्ता के समीकरण बैठाने की इस लड़ाई ने पार्टी की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इन हालात में केंद्रीय नेतृत्व के सामने प्रदेश में जातीय व क्षेत्रीय संतुलन से ज्यादा जरूरी दिग्गजों को साधने की चुनौती है।
सूत न कपास और जुलाहों में लट्ठमलट्ठ, प्रदेश में कांग्रेस का हाल ऐसा ही है। प्रदेश में मजबूत जनाधार रखने वाली पार्टी 2017 के चुनाव में बुरी गत देख चुकी है। पार्टी को विधानसभा में महज 11 सीटों पर सिमटना पड़ा। यही नहीं 2017 के बाद शहरी निकायों, पंचायतों के चुनाव और लोकसभा चुनाव में भी पार्टी का ग्राफ नीचे ही गोते लगाता रहा। अब चुनाव से चंद महीने पहले नेता प्रतिपक्ष के रिक्त पद के बहाने पार्टी की अंदरूनी खींचतान उस वक्त सतह पर आ गई, जब प्रदेश अध्यक्ष को भी बदले जाने का मुद्दा जोर पकड़ा।
प्रदेश में पार्टी के बड़े नेताओं के बीच इस मुद्दे पर खिंची तलवारें अब भी म्यान में जाने को तैयार नहीं हैं। आरपार की इस जंग के पीछे 2022 के चुनाव में सत्ता के समीकरणों को अभी से साधने की जुगत है। जोड़-तोड़ के इस गणित में पार्टी के दिग्गज एकजुटता की कस्मे-वादे सभी बिसरा बैठे हैं। नतीजा प्रदेश प्रभारी देवेंद्र यादव की बेबसी के रूप में सामने आ चुका है। दिग्गजों को मनाने में कामयाब नहीं होने के बाद प्रदेश प्रभारी ने नेता प्रतिपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष के मुद्दे पर गेंद पार्टी हाईकमान के पाले में डाल दी है
उत्तराखंड में सत्ता में वापसी को लेकर गंभीरता दिखा रहे कांग्रेस हाईकमान के लिए भी इस दुविधा से पार पाना आसान नहीं दिखाई दे रहा है। दरअसल विधानसभा चुनाव में जिस जातीय और क्षेत्रीय संतुलन साधने को आधार बनाकर नए नेता प्रतिपक्ष के चयन और प्रदेश अध्यक्ष बदलने का दांव खेला जाना है, वह आसान नहीं है। दिग्गजों के बीच संतुलन का गणित डगमगाने से चुनाव से पहले ही पार्टी कार्यकर्त्ताओं के मनोबल पर असर दिखाई पड़ सकता है।