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RGA न्यूज़
शहर की यातायात व्यवस्था इस कदर बिगड़ गई है कि कोई भी विभाग कभी इसे सुधारने की पहल नहीं कर पाया। यहां तक कि जनता के काम के लिए आपसी समन्वय भी नहीं बना पाए। एक पहल के बाद अब सभी की नींद टूटी है।
यातायात को सुधारने के लिए मिल-जुलकर काम करेगी खाकी।
अलीगढ़, शहर की यातायात व्यवस्था इस कदर बिगड़ गई है कि कोई भी विभाग कभी इसे सुधारने की पहल नहीं कर पाया। यहां तक कि जनता के काम के लिए आपसी समन्वय भी नहीं बना पाए। लेकिन, लंबे समय बाद ही सही, एक पहल के बाद अब सभी की नींद टूटी है। खाकी ने देहात के टेंपो को शहर से बाहर का रास्ता दिखा दिया तो चालक जनप्रतिनिधियों के दर पर पहुंच गए। खाकी से तकरार भी हुई, मगर अंतत: यही तय हुआ कि यातायात को सुधारने के लिए मिल-जुलकर काम करेंगे। खाकी ने कार्रवाई जारी रखी। अब अन्य विभाग भी सक्रिय हो गए हैं। अवैध पार्किंग, बसों के अव्यवस्थित स्टापेज, चौराहों पर कब्जे के खिलाफ शिकंजा कसा जा रहा है। ऐसा करके सभी विभागों के बीच श्रेय लेने की होड़ मची है। खैर, अच्छी बात है। फायदा शहर को ही हो रहा है। लेकिन, यह कवायद बंद नहीं होनी चाहिए।
एक और गुत्थी उलझी
कुछ घटनाओ में पुलिस इतनी उलझ जाती है कि उसे भुला दिया जाता है। इस साल ऐसे कई केस हुए, जिनमें पुलिस को विशेषज्ञों की राय लेनी पड़ी। लेकिन, नतीजा निकलकर नहीं आया। शहर के एक थाने में मैकेनिक की मौत भी इसी तरह की है। मैकेनिक का शव पड़ा मिला था। पोस्टमार्टम रिपोर्ट के आधार पर पुलिस बीमारी से मौत बता रही है। लेकिन, स्वजन हत्या का आरोप लगा रहे हैं। कह रहे हैं कि चोरी करने का इल्जाम लगाकर मैकेनिक को बंधक बनाया और बेरहमी से पीटकर हत्या कर दी। बिजली करंट भी दिया गया। विवाद बढ़ा, हंगामा हुआ तो पुलिस ने नामजद मुकदमा दर्ज किया। सबसे बड़ी समस्या है कि जिस जगह पर शव मिला, वहां न कोई चश्मदीद था। न ही वहां सीसीसीवी है। लेकिन, पुलिस तो बाल में से भी खाल निकाल लेती है। ऐसे में इस गुत्थी के भी जल्द सुलझने की उम्मीद है।
...तो शायद कभी नहीं खुलता राज
एक युवक ने पहले पत्नी व दो मासूम बच्चों को मारकर जमीन में गाढ़ दिया। फिर खुद की हत्या साबित करने के लिए दोस्त की बलि चढ़ा दी। ये केस फिल्मी कहानी से कम नहीं था। पुलिस को भी उसी तरह काम करने की जरूरत थी। लेकिन, दो जिलों की पुलिस हाथ पर हाथ रखकर बैठी रही। दो माह पहले अलीगढ़ से कासगंज गए एसओजी प्रभारी ने पुरानी हत्याओं को खंगाला तो इस केस पर नजर रुक गई। तमाम सवाल थे, जिनके जवाब आसानी से मिल जाते, मगर कभी किसी ने मेहनत नहीं की। प्रभारी खुद पीडि़त व वादी के घर गए और कड़ी से कड़ी जोड़ीं। तीन साल में पीडि़त पक्ष टूट चुका था। कहीं भी जाते, वहां से उदासीनता ही हाथ लगती। दो माह में जब सच्चाई सामने आई तो सभी चौंक गए। पीडि़त परिवार ने कहा, ये प्रभारी न होते तो शायद हमारा केस कभी नहीं खुलता।
थानेदारी इतनी आसान नहीं होती...
कुछ महीनों में जिले में तकरीबन सभी थानों में बदलाव हो चुका है। कप्तान का सीधा फंडा है कि लापरवाही मिलेगी तो चेतावनी की भी गुंजाइश नहीं होगी। शायद यही अंदाज कुछ थानेदारों को रास नहीं आ रहा। तभी तो कुछ थानेदार शहर का भी चार्ज लेने से कतराते हैं। जबकि जो शहर में मौजूद हैं, वे भी देहात के थानों में रहना ज्यादा मुनासिब समझ रहे हैं। इनमें कुछ भी मनोकामना पूरी भी हो गई है। लेकिन, गैर-जनपद से आए नए थानेदारों में थोड़ी सक्रियता और संवाद की कमी नजर आ रही है। नतीजतन, शहर में लंबे समय से न तो कोई गुड वर्क हुआ। न ही कोई बड़ा गिरोह हाथ आया। बस एक ढर्रे पर काम चल रहा है और चंद वांछितों को पकड़कर वाहवाही लूटी जा रही है। क्या हकीकत में थानेदारी इतनी आसान होती है। बहरहाल, वांछितों से ऊपर उठकर भी काम करने की जरूरत है।