महासमर 2019 बैचेन ब्राह्मण बिगाड़ेगा सियासी गणित

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सुमित शर्मा RGA News संवाददाता
11 प्रतिशत पंडित वोट अपने को कर रहा उपेक्षित महसूस
राजनीतिक पार्टियों की रणनीति सामाजिक बंटवारे पर टिकी होती है जो जाति और समुदाय को बांटकर सियासी इंजीनियरिंग तैयार करता है। उत्तर प्रदेश का समाजशास्त्र बताता है कि वहां के मतदाता पर साफ तौर पर सोशल इंजीनियरिंग का असर है। उन्हें जाति और समुदाय में बांटकर देखा जाता है। तमाम पार्टियों की रणनीति भी इसी सामाजिक बंटवारे पर आधारित होती है। इस खेल में बड़ी पार्टियों से लेकर छोटे दल तक शामिल हैं।
उत्तर प्रदेश के चुनाव में भले ही चुनावी मुद्दे ला एंड ऑर्डर हों या फिर सांप्रदायिक दंगे, करप्शन, बेरोजगारी, महंगाई या विकास हों लेकिन सभी पार्टियां ये जानती हैं कि सिर्फ मुद्दों से चुनाव नहीं जीता जा सकता। इसलिए जातियों और धर्म की तिकड़म ही सत्ता के घुमावदार रास्ते को सीधा बनाता है। क्योंकि वोटर अक्सर भावनाओं में बहकर वोट देने का फैसला करता हैं।
लखनऊ। जातिवादी राजनीति का गढ़ बनकर उभरे यूपी में ब्राह्मण मतदाता अपने को ठगा सा महसूस कर रहा है। लोकसभा चुनाव में इस वोट पर सबकी निगाह तो है लेकिन सियासी समीकरण बिगाडऩे में सक्षम ब्राह्मण मतदाता की खामोशी भाजपा ही नहीं सपा बसपा और कांग्रेस को भी बैचेन कर रही है। 
उत्तर प्रदेश की सियासत जातियों के ईर्दगिर्द ही घूमती रही है। तभी एक विशेष वर्ग की राजनीति ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को सत्ता का सिंहासन दिलाया। लेकिन उसमें भी गणित ये रहा कि दूसरी पार्टियों के वोटबैंक को साधा गया क्योंकि बिना उसके यूपी में सरकार बनाना मुमकिन नहीं था। 
 यूपी में अपनी सियासी जमीन मजबूत करने में जुटी कांग्रेस ने विधानसभा चुनाव में ब्राह्मण जाति की शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया। दलितों की सबसे बड़ी नेता मायावती कई बार आर्थिक आधार पर पिछड़े सवर्णों को आरक्षण दिए जाने की वकालत कर चुकी हैं। सीएम अखिलेश ने भी मुख्यमंत्री आवास पर मंत्रों के उच्चारण से परहेज नहीं किया और मंच पर संतों से आशीर्वाद ले सवर्णों को संदेश देने की कोशिश की। ब्राöण वोटों की सबसे बड़ी दावेदारी बनने वाली बीजेपी ने जब केन्द्रीय मंत्रिमंडल विस्तार किया तो यूपी से महेन्द्र पांडे को जगह दी, राज्यसभा में सदस्य भेजने की बात आई, तब भी बीजेपी ने शिव प्रताप शुक्ला को आगे किया। ये सारे संकेत बताते हैं कि यूपी में ब्राह्मण वोटरों की अहमियत क्या है। इतिहास गवाह है कि यूपी में वोटों के लिहाज से करीब 11 प्रतिशत ब्राह्मणों ने जिस राजनीतिक दल के पक्ष में माहौल बनाया, वही सत्ता पर काबिज हुआ। वास्तव में ब्राह्मणों की ताकत सिर्फ 11 फीसदी वोट तक सीमित नहीं है। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, ब्राह्मण राजनीतिक हवा बनाने में सक्षम हैं। लोकसभा चुनाव में ब्राह्मणों ने बीजेपी के लिए माहौल बनाया, तो यूपी में बीजेपी की लोकसभा सीटों की संख्या 10 से बढ़कर 71 पर पहुंच गई। यही वजह है कि राजनीतिक दल कोई भी हो, उसका वोट बैंक किसी जाति का हो, पर वो ब्राह्मणों को नाराज नहीं करना चाहता। क्योंकि दलों के यह पता है कि चुनावों में किस पार्टी के पक्ष में माहौल होगा, यह ब्राह्मण वोटर ही तय करेंगे।
यूपी की राजनीति में क्यों महत्वपूर्ण हैं ब्राह्मण
प्रदेश में ब्राह्मण वोटरों की संख्या भले ही कम हो लेकिन आजादी के बाद से मुख्यमंत्री के पद पर ब्राह्मणों का वर्चस्व रहा है। आजादी के बाद से 1989 तक 6 ब्राह्मण मुख्यमंत्री बने। हालांकि, 1990 के मंडल आंदोलन के बाद यूपी को कोई ब्राह्मण मुख्यमंत्री नहीं मिला। इसकी सबसे बड़ी वजह यूपी की सियासत पिछड़़े मुस्लिम और दलित पर केन्द्रित हो गई। इसके बाद मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने। 1991 में जब पहली बार बीजेपी की सरकार बनी, तब बीजेपी ने पिछड़ी जाति के कल्याण सिंह को मुख्यमंत्री बनाया। उसके बाद बीएसपी और सपा ने मिलकर सरकार बनाई। उस समय ब्राह्मणों का महत्व यूपी की राजनीति में थोड़ा कम हुआ। सियासत में यह सिलसिला 2007 तक जारी रहा। 2007 में मायावती की सोशल इंजीनियरिंग ने एक बार फिर प्रदेश में ब्राह्मण वोटों के महत्व को बढ़ा दिया। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, 2007 के बाद ब्राह्मण वोटों की अहमियत इसलिए भी बढ़ी, क्योंकि सत्ता में रहने वाले दोनों दल सपा और बसपा के बीच वोटों का अंतर 8 प्रतिशत से कम ही रहता था। इन्हीं वोटों के अंतर से किसी की सरकार बनती, तो दूसरा विपक्ष में रहता। जो दल करीब 11 प्रतिशत वोटों में से 5 प्रतिशत वोट भी अपने पक्ष में रखता, उसकी सरकार बनना लगभग तय माना जाता था। यही वजह थी कि 2007 में मायावती ने इस फार्मूले को अपनाया और इसमें सफल भी रहीं।
2007 में ब्राह्मण गठजोड़ से मायावती आईं थीं पूर्ण बहुमत में
2007 के विधानसभा चुनावों में मायावती ने जब दलित, ब्राह्मण सोशल इंजीनियरिंग का प्रयोग किया, तो यह प्रयोग यूपी के इतिहास का सबसे सफल प्रयोग साबित हुआ। पहली बार मायावती की पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनी। दलितों की पार्टी कही जाने वाली बीएसपी में दूसरे नंबर के नेता का कद सतीश चन्द्र मिश्रा को दिया गया। 2007 के चुनावों में मायावती ने ब्राह्मणों को उम्मीदवार बनाया, दलित ब्राह्मण गठजोड़ के चलते ब्राह्मण प्रत्याशी जीते भी। मायावती ने कई ब्राह्मण नेताओं को मंत्रिमंडल में जगह दी। 2007 के चुनावों की तरह ही 2009 के लोकसभा चुनाव में भी मायावती ने एक बार फिर सोशल इंजीनियरिंग की। मायावती ने 2009 के चुनाव में सबसे अधिक 20 सीटों पर ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे। हालांकि, कुछ मुद्दों पर नाराजगी के चलते ब्राह्मण वोटरों ने मायावती का साथ छोड़ दिया, जिसकी वजह से लोकसभा की सीटों में बीएसपी इजाफा नहीं कर सकी।
2009 में कांग्रेस के साथ
बसपा से नाराज ब्राह्मण वोटरों ने 1989 के बाद पहली बार यूपी में कांग्रेस का साथ दिया। राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, इस चुनाव में कुल ब्राह्मणों में से 20 प्रतिशत ब्राह्मणों ने ही वोट किया लेकिन ज्यादातर वोट कांग्रेस के पक्ष में किया। इसका नतीजा ये हुआ कि 2004 के लोकसभा चुनावों में 4 सीट जीतने वाली कांग्रेस पार्टी को 2009 में 21 सीटों पर जीत मिली।
2012 में सपा की साइकिल चलाई
2012 के विधानसभा चुनावों में ब्राह्मण वोटरों को सपा में उम्मीद दिखी। अपने चुनावी प्रचार में ही समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मणों को बड़े पैमाने पर रिझाने की कोशिश की और यह छवि बनाई कि ब्राह्मण मायावती का साथ छोड़कर सपा के पास आ रहे हैं। राजनीतिक विशेलेषकों के मुताबिक, 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद मायावती ने दलितों को कथित तौर पर बड़े पैमाने पर एससी एसटी एक्ट के तहत मामले दर्ज करने की छूट दी। मायावती के इन कदमों से ब्राह्मणों में नाराजगी बढ़ी और वह सपा के नजदीक पहुंच गए।
11 पर्सेंट ब्राह्मण यूपी में हैं
8 पर्सेंट से ज्यादा ब्राह्मण वोटर यूपी के 62 जिलों में हैं
12 पर्सेंट से ज्यादा ब्राह्मण वोटर इनमें से 31 जिलों में हैं
06 ब्राह्मण प्रदेश के मुख्यमंत्री अब तक बन चुके हैं
23 साल तक आजादी के बाद ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों ने प्रदेश की कमान संभाली
एनडी तिवारी के बाद यूपी में कोई ब्राह्मण सीएम नहीं बना
यहां निर्णायक भूमिका में हैं ब्राह्मण वोटर
प्रतापगढ़, फैजाबाद, बलरामपुर, गोंडा, सिद्धार्थनगर, बस्ती, संत कबीर नगर, महाराजगंज, गोरखपुर, कुशीनगर, देवरिया, जौनपुर, अमेठी, मिर्जापुर और सोनभद्र में ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या 14 से 15 प्रतिशत है। वाराणसी में 16 प्रतिशत, मथुरा, कानपुर में 17-17 फीसदी ब्राह्मण मतदाता हैं। राजधानी लखनऊ में ब्राह्मण वोटरों की संख्या करीब 13 फीसदी है।
पार्टियों में चर्चित ब्राह्मण नेता
समाजवादी पार्टी
विजय मिश्र, अभिषेक मिश्रा, मनोज पांडे, तेज नारायण पांडे पवन, शारदा प्रताप शुक्ला
बीएसपी
 
सतीश चन्द्र मिश्रा, नकुल दुबे, अनंत मिश्रा, रामवीर उपाध्याय
बीजेपी
कलराज मिश्र, दिनेश शर्मा, महेश शर्मा, महेन्द्र नाथ पांडे. शिव प्रताप शुक्ला
कांग्रेस
शीला दीक्षित, प्रमोद तिवारी, जितिन प्रसाद
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जाति का वोट बैंक
उत्तर प्रदेश के जाति गणित को समझें तो सवर्ण 18.20 प्रतिशत, ओबीसी 42.45 प्रतिशत, दलित 21.22 प्रतिशत और मुस्लिम 16.18 प्रतिशत है। सवर्णों में सबसे ज्यादा तादाद ब्राह्मणों की 11 प्रतिशत है। जबकि राजपूतों की 4.5 प्रतिशत और वैश्य की 3.4 प्रतिशत है।
बीजेपी का जाति वोट बैंक
यूपी की सियासत में जातीय समीकरणों के जाल को देखें तो इसमें चुनाव दर चुनाव किसी पार्टी का फायदा बढ़ता गया तो किसी का नुकसान होता चला गया। अगर बीजेपी की बात करें तो उत्तर प्रदेश में उसका वैश्य वोट बैंक सबसे ज्यादा था जो कि पांच साल में गिरा। वहीं ब्राह्मण, राजपूत और कुर्मी कोइरी वोटों में भी भारी गिरावट हुई। हालांकि इसके पीछे एक वजह मायावती की सोशल इंजीनियरिंग भी मानी जाती है। बीएसपी ने साल 2007 में जातिगत समीकरणों में सबको चित कर दिया था।
बसपा का वोट बैंक
साल 2007 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी के पास जाटव, पासी, बाल्मीकि और अन्य दलित की ताकत थी। लेकिन साल 2012 में बदलाव की बयार चली और इस वोट बैंक पर समाजवादी पार्टी सेंध लगाने में कामयाब हुई। साल 2012 के विधानसभा चुनाव में जाटव और बाल्मिकी समाज के अलावा अन्य दलितों का वोट बेस घटा।
कांग्रेस का वोट बैंक
कभी कांग्रेस का यूपी में एक छत्र राज हुआ करता था। लेकिन 1989 के बाद ऐसा ग्रहण लगा की धीरे धीरे कांग्रेस से सबका मोहभंग होता चला गया। यूपी में कांग्रेस की जमीन ऐसी दरकी कि वैश्य, मुस्लिम, दलित और राजपूत वोटरों ने हाशिए पर धकेल दिया। हालांकि साल 2012 में कांग्रेस को थोड़ी राहत मिली।
समाजवादी पार्टी का वोट बैंक
2007 और 2012 के चुनाव के नतीजों से साफ है कि इस बार भी समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी की नजर 35 फीसदी वोट पर है क्योंकि साल 2012 और 2007 में इन दोनों ने 30 फीसदी वोट लेकर पूर्ण बहुमत से सरकार बनाई थी।
समाजवादी पार्टी ने पिछले 10 साल में जातिगत समीकरणों को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई। साल 2012 में ब्राम्हण, राजपूत, जाटव और अन्य ओबीसी वोटों का ग्राफ  सपा के पक्ष में बढ़ा।

यूपी में सबसे ज्यादा ब्राह्मण सीएम बने
सूबे में करीब 12 फीसदी ब्राह्मण मतदाता हैं। जो चार दशक तक सूबे की सियासत के बेताज बादशाह बनकर सत्ता पर काबिज रहे। अब तक के 21 मुख्यमंत्रियों में से सबसे अधिक 6 मुख्यमंत्री ब्राह्मण जाति से ही आए और ये सभी कांग्रेस पार्टी से बने थे। इसके बाद 5 ठाकुर, 5 पिछड़े, 3 वैश्य, 1 कायस्थ और एक दलित मुख्यमंत्री बना। अगर कुल कार्यकाल पर नजर डालें तो 23 साल तक प्रदेश की कमान ब्राह्मण मुख्यमंत्रियों के हाथ में रही।
बीजेपी ने कभी ब्राह्मण को नहीं बनाया सीएम
कांग्रेस के बाद यूपी का ब्राह्मण मतदाता बीजेपी के कोर वोटबैंक के तौर पर रहा है, लेकिन बीजेपी ने कभी भी किसी भी ब्राह्मण को सीएम नहीं बनाया। जबकि सूबे में कई बार बीजेपी की सरकार बनी। इसके बावजूद ब्राह्मण बीजेपी के संग लगा रहा। 2017 में जब प्रचंड बहुमत के साथ बीजेपी ने जीत का परचम लहराया तो ब्राह्मणों को फिर उम्मीद जागी कि कांग्रेस के दौर वाले दिन बहुरेंगें। लेकिन बीजेपी ने योगी आदित्यनाथ के नाम पर सीएम के पद की मुहर लगाकर उनके अरमानों पर पानी फेर दिया। हालांक दिनेश शर्मा को उप मुख्यमंत्री और महेंद्र नाथ पांडेय को प्रदेस अद्यक्ष बनाकर भाजपा ने ब्राहमणों को साधने की कोशिश की है। 
सीएम योगी से  ब्राह्मण बेचैन
राजपूत समाज से तागुक रखने वाले योगी आदित्यनाथ को यूपी का सीएम बनाए जाने के बाद से सूबे का ब्राह्मण समाज बेचैन महसूस कर रहा था। सूबे में काफी जिलों में राजपूज समाज के जिला अधिकारी और पुलिस अधीक्षक बैठा दिए गए हैं। इतना ही नहीं सरकारी महाअधिवक्ता भी राजपूत समाज से बनाया गया है। योगी के सत्ता पर विराजमान होते ही पूर्वांचल के ब्राह्मण नेता माने जाने वाले हरिशंकर तिवारी के घर पुलिस ने छापेमारी की। ब्राह्मणों ने इसे योगी के इशारे पर कार्रवाई मानी।  रायबरेली में 5 ब्राह्मणों की हत्या से ब्राह्मणों में बीजेपी के प्रति नाराजगी और भी बढ़ गई। इसीलिए ब्राह्मण अपने आपको ठगा हुआ महसूस करने लगा।
पूर्वांचल  ब्राह्मणों का गढ़ माना जाता है। पूर्वांचल में ब्राह्मण मतदाता 16 फीसदी से लेकर 23 फीसदी तक है। ऐसे में किसी भी सियासी खेल बनाने और बिगाडऩे का दमखम रखते हैं। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र पांडेय भी पूर्वांचल से आते हैं। वह  गाजीपुर के पखनपुर गांव में जन्मे हैं लेकिन वाराणसी में जाकर बस गए। फिलहाल चंदौली से लोकसभा सांसद हैं, बीजेपी आलाकमान ने उन्हें सूबे में पार्टी की कमान सौप दी है, लेकिन सूबे भर में महेंद्र पांडेय की कोई खास पहचान नहीं रही है।

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