अब गर्मी और सूखे में भी लहलहाएगी की चने की फसल, किसानों को होगा फायदा

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RGA News

हैदराबाद:- वैज्ञानिकों ने काबुली चने की एक ऐसी प्रजाति को विकसित करने में सफलता हासिल की है, जिस पर गर्मी और सूखे का असर नहीं पड़ेगा। 45 देशों के चने की 429 प्रजातियों के जेनेटिक कोड का गहन अध्ययन करने के बाद यह सफलता मिली है। अंतरराष्ट्रीय अर्ध-शुष्क उष्णकटिबंधीय फसल अनुसंधान संस्थान (आइसीआरआइएसएटी) ने मंगलवार को यह जानकारी दी है।

भारत के लिए यह शोध बहुत फायदेमंद साबित हो सकता है और इसकी मदद से वह दालों के उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर बन सकता है। भारत दाल की खपत करने वाला दुनिया का सबसे बड़ा देश है, जबकि, उत्पादन में बहुत पीछे है।

इस अध्ययन से यह भी पुष्टि हुई है कि अफगानिस्तान के रास्ते भूमध्यसागरीय उपजाऊ क्षेत्र से काबुली चना भारत आया था। आइसीआरआइएसएटी ने एक बयान में कहा है कि काबुली चने की सभी प्रजातियों को मिलाकर एक नई प्रजाति विकसित करने के लिए किया गया यह सबसे बड़ा अभ्यास है..कृषि समुदाय के लिए इसका सीधा सा मतलब उच्च पैदावार के साथ चने की नई किस्मों का संभावित विकास होता है, जो कि रोग-कीट-प्रतिरोधी में बेहतर और मौसम की मार का सामना करने में सक्षम।

फसल अनुसंधान संस्थान ने कहा है कि वैश्विक स्तर पर 21 शोध संस्थानों के 39 वैज्ञानिकों की टीम ने चीन के शेनजेन की बीजीआइ के निकट सहयोग से यह सफलता हासिल की है।

आइसीआरआइएसएटी के इस प्रोजेक्ट का नेतृत्व करने वाले और अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक (आनुवंशिक वृद्धि) राजीव वाष्र्णेय ने कहा, 'जीनोम-वाइड संगति अध्ययन ने 13 कृषि संबंधी लक्षणों के लिए कई जीनों की पहचान की। उदाहरण के लिए, हम ऐसे जीनों की पहचान कर सकते हैं जो फसल को 38 डिग्री सेल्सियस तक तापमान सहन करने में मदद कर सकते हैं और उच्च पैदावार प्रदान कर सकते हैं।'

दक्षिण एशिया में 90 फीसद से ज्यादा काबुली चने की खेती का क्षेत्र है। कहा जाता है कि सूखे और बढ़ते तापमान से वैश्‍विक स्तर पर चने के उत्पादन में 70 फीसद तक नुकसान होता है। चना ठंडे मौसम का फसल है जिससे बढ़ते तापमान से इसके उत्पादन में और कमी आने की संभावना है।

आइसीआरआइएसएटी के महानिदेशक पीटर कारबेरी ने कहा कि इस नए शोध से किसानों को मौसम के हिसाब से चने की खेती करने में मदद मिलेगी। इससे विकासशील देशों में कृषि विकास की स्थिरता और उत्पादकता में वृद्धि में उल्लेखनीय मदद मिलेगी।

अध्ययन ने जर्मप्लाज्म, जनसंख्या आनुवंशिकी और फसल प्रजनन के बड़े पैमाने पर लक्षण निरुपण के लिए एक नींव स्थापित की है। इसने चने के वर्चस्व और वर्चस्व बाद विचलन को समझने में मदद की है।

अध्ययन में एशिया और अफ्रीका में चने की उत्पत्ति और इसके उभार का भी उल्लेख किया गया है। इसमें यह भी अनुमान लगाया गया है कि काबुली चना भूमध्यसागर के बजाय मध्य एशिया या पूर्वी अफ्रीका से सीधे नई दुनिया के देशों में आया।

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