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नई दिल्ली:-म्यांमार के शिविरों में विस्थापित रोहिंग्याओं को वहां से रिहा करने की मांग उठने लगी है। ह्यूमन राइट्स वॉच (एचआरडब्ल्यू) संगठन ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि सबको मिल कर आंग सान सू ची की सरकार से रोहिंग्याओं को रिहा करने की मांग करनी चाहिए। ये शिविर बौद्ध बाहुल्य वाले म्यांमार में अल्पसंख्यक मुस्लिम रोहिंग्या समुदाय के लोगों के साथ लंबे समय से चले आ रहे भेदभाव की विरासत हैं। बताया जाता है कि साल 2012 में रोहिंग्याओं और बौद्ध राखाइन समूह के बीच हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद ये शिविर बने थे।
हिंसी की वजह से दोनों पक्ष हुए बेघर
हिंसा की वजह से दोनों पक्षों के कई लोग बेघर हो गए थे लेकिन उसके बाद लगभग सारे राखाइन या तो अपने घर वापस लौट गए हैं या उनका पुनर्वास करा दिया गया है। लेकिन रोहिंग्या वापस नहीं लौट सके हैं। एचआरडब्ल्यू ने अपनी नई रिपोर्ट में कहा है कि 24 शिविरों में अमानवीय हालात हैं और इनके इर्द गिर्द कड़े प्रतिबंध लगे हुए हैं। इनके अलावा राखाइन राज्य में भी रोहिंग्याओं को प्रतिबंधों में रखा गया है और इन सब का जीने का अधिकार और दूसरे मूल अधिकार खतरे में हैं।
रिपोर्ट के अनुसार बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य और पर्याप्त भोजन और आश्रय पर कड़े प्रतिबंध लगे हुए हैं और इसके अलावा इन तक पहुंचने वाली मानवीय मदद पर भी प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं जिस पर रोहिंग्या निर्भर हैं। शिविरों में बंद लोगों में उनके राखाइन पड़ोसियों के मुकाबले कुपोषण, पानी के रास्ते होने वाली बीमारियों, शिशुओं और माताओं के बीच मृत्यु दर ज्यादा ऊंची है।
कंटीले तारों को काटकर दी जाए लौटने की इजाजत
रिपोर्ट की लेखिका और एचआरडब्ल्यू में एशिया रिसर्चर शायना बॉकनर का कहना है कि सरकार का दावा तब तक खोखला रहेगा जब तक वो कंटीली तारों को काट रोहिंग्याओं को पूरी कानूनी सुरक्षा के साथ अपने घर लौटने की इजाजत नहीं दे देती। म्यांमार की सरकार ने तुरंत इस रिपोर्ट पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। एचआरडब्ल्यू का कहना है कि औपचारिक नीतियों, अनौपचारिक कदमों, नाकेबंदी, कंटीली तारों और जबरन वसूली के एक विस्तृत जाल की वजह से इन शिविरों में रहने वाले लोग स्वतंत्रता से कहीं आ-जा नहीं सकते।
शिविरों में रह रहे बच्चों के लिए शिक्षा का अभाव
रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि शिक्षा और रोजगार के अवसरों के अभाव की वजह से नुकसान हो रहा है। रिपोर्ट के मुताबिक शिविरों में रह रहे 65,000 बच्चों के लिए शिक्षा का अभाव उनके मूल अधिकारों का हनन है। युवा पीढ़ी को आत्म-निर्भरता और सम्मान के भविष्य से दूर किया जा रहा है। उनसे बाकी समुदाय के साथ फिर से घुलने मिलने की संभावना भी छीनी जा रही है। वैसे म्यांमार सरकार ने अप्रैल 2017 में ही शिविरों को बंद करने की घोषणा की थी लेकिन ऐसा किया नहीं गया। ये अब तक उन्हीं शिविरों में बंद है।