बाजार के शिकंजे में स्कूली शिक्षा, निजी शिक्षण व्यवस्था में मनमानी पर रोक के उपाय

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सरकारी और निजी शिक्षण संस्थान आर्थिक रूप से असमान समाज का आईना दिखाते हैं। फाइल

अधिकांश स्कूलों में नया शिक्षण सत्र आरंभ हो चुका है। अभिभावक अपने बच्चों के लिए नए सत्र की पुस्तकें खरीदने में जुट गए हैं लेकिन पिछले कुछ दशकों के दौरान स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में निजी विद्यालयों के बढ़ते जाने से शिक्षा व्यवस्था में बहुत कुछ बदल चुका है वर्तमान में हमारे देश में विद्यालयी शिक्षा के लिए निजी और सरकारी दोनों तरह के शैक्षणिक संस्थान हैं। हालांकि स्वतंत्रता के बाद समग्र शिक्षा व्यवस्था का सरकारीकरण किया गया। एक समय में शैक्षिक संस्थाएं या तो सीधे तौर पर सरकार चलाती थी या सरकार के अनुदान से ये संस्थाएं चलती थीं। विद्यार्थियों का शुल्क, शिक्षकों का वेतन एवं संस्था चलाने हेतु अनुदान जैसी व्यवस्थाएं बनाई गईं। कालांतर में इस संदर्भ में उदासीनता, बदलाव के इरादे से या किन्हीं और वजहों से सरकारें शिक्षा की जिम्मेदारी से मुक्ति की राह तलाशने लगीं, लिहाजा निजी शिक्षण संस्थानों की कवायद शुरू हुई।

वर्ष 1990 के आते आते निजी शिक्षण संस्थान खोलने के लिए उपयुक्त मैदान तैयार हो गया। परिणामस्वरूप निजीकरण सरकारी शिक्षा तंत्र का विकल्प बन गया, जिसका उपयोग लोग अपने बच्चों के लिए पैसे देकर कर सकते थे। हालांकि यह सबके लिए गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुलभ कराने के लिए तो सही कदम था, लेकिन इसका एक बड़ा प्रभाव यह हुआ कि समाज के समर्थ तबके का कोई हित सरकारी शिक्षा तंत्र में निहित नहीं रह गया। अत: वह तेजी से ढलान के रास्ते पर चलने लगा और उसकी खाली की गई जगह को बढ़ता शिक्षा का बाजार भरने लगा

शिक्षा में व्यवसायीकरण का दौर : शुरुआती दौर में उन लोगों ने शिक्षा संस्थान खोलने में रुचि दिखाई, जो वास्तव में शिक्षा के क्षेत्र में कुछ करना चाहते थे, लेकिन बाद में वे लोग भी इसमें शामिल हो गए जिनका उद्देश्य शिक्षा की आड़ में केवल मुनाफा कमाना था। और इसी वजह से बीतते समय के साथ शिक्षण संस्थानों ने अधिक से अधिक पैसे कमाने को लेकर अपनी पैठ को इतना खराब कर दिया है कि शिक्षा और शिक्षण इनका प्रमुख लक्ष्य नहीं रहा। आज स्थिति यह है कि शिक्षा को व्यवसाय बना दिया गया है और शिक्षण को बाजारीकरण। विडंबना यह भी कि लोगों को इससे निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है।

हालांकि निजी शिक्षण संस्थानों के फलने फूलने का एक बड़ा कारण यह भी है कि सरकारी शिक्षण संस्थानों में मूलभूत सुविधाओं, शिक्षण सामग्री, शिक्षकों की कमी व गुणवत्ता के प्रति शासकीय गंभीरता नहीं होने से ये मध्यम और उच्च वर्ग को अपनी ओर आकर्षति नहीं कर पाए हैं। या फिर यह भी कहा जा सकता है कि निजी शिक्षण संस्थानों ने इन तथ्यों को समझते हुए शिक्षण सामग्री की गुणवत्ता को अपने स्तर से बढ़ाते हुए मध्य उच्च वर्ग को अपनी ओर आकर्षित करने में कामयाबी पाई।

चूंकि अभिभावकों की पहली प्राथमिकता सुविधाएं और गुणवत्ता ही होती हैं और ये दोनों काम निजी शिक्षण संस्थान उस दौर में संजीदगी से कर रहे थे, जिससे लोगों का इसके प्रति आकर्षण बढ़ा। कालांतर में इन्होंने इसी का फायदा उठाना शुरू कर दिया और शिक्षा को बाजार में खरीदने-बेचने की वस्तु बना दिया गया। परिवेश कुछ इस तरह से बनता गया कि जिसके पास पैसा हो वह शिक्षा खरीदे, न हो तो बिना शिक्षा के रहे या जहां कुछ मुफ्त में मिल रही हो वहां से प्राप्त कर ले। यही कारण है कि सरकारी और निजी शिक्षण संस्थान आíथक रूप से बंटे हुए समाज का आईना दिखाते हैं। सरकारी विद्यालय केवल गरीब बच्चों के लिए रह गए हैं और निजी उच्च शिक्षण संस्थान अमीरों के लिए

बहरहाल, देशभर में तमाम निजी शिक्षण संस्थानों के बड़े बड़े और शानदार भवन खड़े हैं। इनमें बच्चों को पढ़ाने के लिए भारी भरकम फीस तो चुकानी ही पड़ती है, साथ ही कई तरह के अन्य शुल्क भी वसूले जाते हैं। अब चूंकि पिछड़े तबके के लोग अपने बच्चों को ऐसे शिक्षण संस्थानों में पढ़ाने में समर्थ नहीं थे, तो अमूमन उच्च आय वर्ग के लोग ही अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाने के लिए भेजते थे, तो ऐसे स्कूलों की फीस स्वाभाविक तौर पर अभिभावकों की आमदनी के हिसाब से अधिक रखी जाती थी। धीरे धीरे छूट का प्रलोभन देकर मध्यम वर्ग को निजी शिक्षण संस्थानों ने अपनी तरफ आकर्षति करना शुरू किया। कुछ साल तक तो यह सब ठीक-ठाक चलता रहा और केवल फीस का ही मामला था। यानी यहां तक केवल स्कूल की फीस ही ली जाती थी। अब जब बड़े बड़े धन कुबेर और दूसरे बाजारी लोगों ने शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश किया, तो इन स्कूलों में शिक्षण सामग्री को महंगे दामों में बेचना शुरू कर दिया गया, जैसे स्कूल यूनिफॉर्म, अभ्यास पुस्तिकाएं, किताबें और बैग समेत तमाम किस्म के स्टेशनरी आदि समस्त सामग्री स्कूल से ही खरीदने के लिए अभिभावकों को बाध्य किया जाने लगा है

बड़ी संख्या में गांवों तक फैल चुके निजी शिक्षण संस्थान भी इससे अछूते नहीं हैं। इन शिक्षण संस्थानों में पैसे कमाने का लालच इस कदर छाया है कि स्कूल यूनिफॉर्म भी स्कूल से ही खरीदने को कहा जाता है। हद तो देखिए कि कोई अभिभावक बाहर से बच्चों की यूनिफॉर्म न खरीद ले, इसके लिए ऐसे स्कूल अपने संस्थान के नाम शर्ट के बटन तक पर प्रिंट करा लेते हैं, ताकि बाहर से खरीदी यूनिफॉर्म में भिन्नता नजर आए और अभिभावकों को स्कूल से यूनिफार्म लेने के लिए तैयार किया जाए। लेकिन मामला केवल यूनिफार्म स्कूल से खरीदने तक का नहीं है, यूनिफार्म के दाम भी बाजार के मुकाबले दोगुने या मनमाने रखे जाते हैं। इसके अलावा, एलकेजी से लेकर आठवीं कक्षा तक की किताबों और कॉपियों के कवर पर संस्थान अपना नाम प्रिंट कर अभिभावकों को बेचते हैं। प्रत्येक किताब अलग-अलग प्रकाशनों से प्रकाशित होती हैं, ताकि कोई भी अभिभावक पूरी किताबें बाहर से खरीद न पाएं। और फिर इनके दाम भी बहुत अधिक रखे जाते हैं। वैसे भी निजी प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की जाने वाली किताबों के मूल्य निर्धारण की कोई सीमा नहीं है

बदलते तकनीक के साथ कई स्कूलों में टैबलेट से पढ़ाई शुरू हुई, तो कई अपने स्तर पर एक ही कंपनी के टैबलेट अभिभावकों को बेचने लगे। इस तरह अधिकांश प्राइवेट स्कूल फीस, ट्यूशन फीस और तरह-तरह के अन्य शुल्क के साथ ही पाठ्य सामग्री व यूनिफॉर्म के दाम मिलाकर सालाना लाखों रुपये वसूल लेते हैं। वर्तमान शिक्षा में बाजार में बिकने वाली दक्षताओं का बोलबाला कायम होने लगा है और उसके सामाजिक व मानवीय जैसे कई पहलू लुप्त हो रहे हैं। ऐसी शिक्षा एक स्वचेता मानव के विकास में मदद करने के बजाय पूंजीवाद के एक उपकरण का निर्माण करने लगती है। इस प्रकार आज शिक्षा का गैर शैक्षणिक उदेश्य हावी होता जा रहा है। यह मध्यम वर्ग के लोगों के लिए तो हैसियत से बाहर है

सरकारी विद्यालयों के विकास पर हो जोर: निजी शिक्षण संस्थानों के धन उगाही के केंद्र बनते जाने के बाद एक विकल्प यह है कि सरकारी स्कूलों का कायाकल्प किया जाना चाहिए, ताकि वहां गुणवत्तायुक्त निशुल्क शिक्षा प्राप्त की जा सके। दिल्ली, राजस्थान आदि में सरकारी विद्यालयों में सुधार के काफी तेज प्रयास हुए हैं। सबके लिए विकास की समान अवधारणा की भांति सबको एकसमान पढ़ने और आगे बढ़ने का मौका मिलना ही चाहिए। यह विडंबना ही है कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्याíथयों को सीखने के वे अवसर नहीं हासिल हैं, जो निजी विद्यालयों के विद्याíथयों को हासिल हैं। निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे एक्टिव लर्निग बोर्ड की सहायता से स्मार्ट क्लास रूम में पढ़ते हैं। टैबलेट और प्रोजेक्टर से लेकर स्मार्ट फीचर्स का उपयोग करते हैं, ऐसे स्कूलों में आम आदमी के बच्चों का नर्सरी तक में दाखिला बहुत ही कठिन होता है

मिसाल के तौर पर मुंबई के एक स्कूल में तो बच्चे के दाखिले के पहले अभिभावकों से पहला प्रश्न यही पूछा जाता है कि उनके यहां कितनी कारें हैं। जाहिर सी बात है कि ऐसे स्कूलों में दाखिले की पहली शर्त आíथक हैसियत होती है। तो महंगी होती शिक्षा से लड़ने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि सरकार शिक्षा के बजट को दोगुना कर सरकारी विद्यालयों की मूलभूत सुविधाओं और गुणवत्ता के उन्नयन के लिए सतत प्रयास करे।

स्कूली शिक्षा व्यवस्था में बढ़ते बाजारीकरण से सवाल यह पैदा होता है कि क्या हम इस समस्या का कोई समाधान निकाल सकते हैं? इसके लिए कुछ सुझाव अमल में लाए जा सकते हैं। पहला तो यह हो सकता है कि माध्यमिक कक्षा तक सभी के लिए समान पाठ्यक्रम अपनाते हुए एक जैसी सरकारी स्तर पर उपयोग की जाने वाली पाठ्य पुस्तकों को अनिवार्य बनाया जाए। जैसे राज्य बोर्ड या सीबीएसई से संबद्ध सभी प्राइवेट स्कूलों में 10वीं और 12वीं कक्षा में समान पुस्तकें उपयोग में लाई जाती हैं। ऐसी स्थिति में विद्यालय अपने स्तर पर विविध प्रकाशनों की पुस्तकें अभिभावकों को मुहैया कराते हुए उनसे मनमाने दाम नहीं वसूल पाएंगे।

इन सबके इतर सबसे उपयुक्त तो यह हो सकता है कि सारी पाठ्य पुस्तकें ही ऑनलाइन उपलब्ध हों। कोरोनाकाल में इसकी आवश्यकता और बढ़ी है। ऑनलाइन पाठ्य सामग्री को अभिभावक अपने कंप्यूटर या टैबलेट में डाउनलोड कर आसानी से उपलब्ध करा सकते हैं। यह डिजिटल शिक्षा और सबके लिए शिक्षा की मांग भी है। हालांकि इससे एक दूसरा मसला छात्रों की सेहत का भी जुड़ा है जिससे संबंधित तमाम पहलुओं पर भी अवश्य विचार किया जाना चाहिए।

4चूंकि छात्रों द्वारा डिजिटल स्पेस में अधिक समय देने के कुछ साइड इफेक्ट्स भी परिलक्षित हो सकते हैं, हो भी रहे हैं, लिहाजा इस मामले में संजीदगी बरतनी पड़ेगी, लेकिन जो अभिभावक प्राइवेट स्कूलों द्वारा मुहैया कराई जा रही महंगी किताबें खरीदने में समर्थ नहीं हैं, उनके लिए डिजिटल पाठ्य सामग्री का विकल्प तो होना ही चाहिए। इसके अलावा, निजी शिक्षण संस्थानों में कानूनी तौर पर एक सक्षम अभिभावक-संस्थान समिति होनी चाहिए जो स्कूल फीस से लेकर अन्य तमाम सामग्री को स्कूल से लेने या नहीं लेने का निर्णय करने के लिए स्वतंत्र हो और उसका निर्णय सभी पर लागू हो। वहीं, जो निजी शिक्षण संस्थान स्कूल यूनिफॉर्म या अन्य सामग्री बाजार से महंगे दामों में खुद बेचते हैं, उन पर सरकार को लगाम लगानी चाहिए। इस पर कानून अमल में लाया जाना चाहिए।

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