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यह रंगमंच का जादू ही है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद दुनियाभर में रंगमंच (Theatre) सदियों से गूंजता हुंकारता और दहाड़ता रहा है। ...
नई दिल्ली: -'बाबू मोशाय! जिंदगी और मौत ऊपर वाले के हाथ है जहांपनाह, जिसे न आप बदल सकते हैं, न मैं। हम सब रंगमंच की कठपुतलियां हैं, जिनकी डोर उस ऊपर वाले के हाथों में है। कब, कौन, कैसे उठेगा, यह कोई नहीं जानता...।' वर्ष 1971 में बनी आनंद फिल्म के इस संवाद की चर्चा आज हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि आज विश्व रंगमंच दिवस, रंगमंच यानी थियेटर। जहां जिंदगी जी जाती है। संवेदनाएं मूर्त रूप लेती हैं। जहां भाव का अभाव नहीं होता है। जहां फिल्मों और सीरियल की तरह कोई रीटेक नहीं होता है। जनता की तालियां मिलीं, आंसू आए, ठहाकों से हाल गूंजा तो सब पास।
रंगमंच ने दिए महान अभिनेता
इसी रंगमंच ने महान अभिनेता दिए। ओम पुरी, नसीरुद्दीन शाह, अनुपम खेर, हिमानी शिवपुरी, आलोक नाथ, केके मेनन, इरफान खान, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, सतीश कौशिक, राजबब्बर, नीना गुप्ता, रघुबीर यादव, आशुतोष राणा, एके रैना, यशपाल शर्मा, अनूप सोनी, पंकज कपूर के नाम इसमें शामिल हैं। ये सभी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के विद्यार्थी रहे।
यह रंगमंच का ही जादू है कि भारत रंग महोत्सव (भारंगम) में देश-विदेश के कलाकारों प्रस्तुति देने के लिए खिंचे चले आते हैं। भारंगम की शुरुआत का श्रेय एनएसडी के पूर्व निदेशक प्रो. राम गोपाल बजाज को जाता है। प्रो. बजाज को 1996 में थिएटर में योगदान के लिए पद्मश्री और 2003 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्होंने कई नाटकों का निर्देशन किया। इनमें सूर्य की अंतिम किरण से, सूर्य की पहली किरण तक (1974), स्कंदगुप्त (1977), मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन (1992) प्रमुख हैं।
रंगमंच के तत्व का डॉक्युमेंटेशन नहीं हो पाया
प्रसिद्ध रंगकर्मी एवं नाट्य निर्देशक व्योमेश शुक्ल कहते हैं कि आजाद भारत के सत्तर बरस में हमारे रंगमंच ने हैरतअंगेज ऊंचाई हासिल की है, लेकिन हमलोग थिएटर की समवेत बौद्धिकता का निर्माण करने में विफल हो गए। कई बार कोई चीज लहर या फैशन की तरह आई और उसने बहुत सी जगह घेर ली। लोग बावले होकर उस चीज के पीछे भागे। धीरे-धीरे वह चीज बासी हो गई। बीच-बीच में उसने अपने सौ क्लोन ऊपर से तैयार कर दिए। उस शिल्प को विचार, बहस और जांच के दायरे में नहीं ले आया जा सका। रंगमंच के तत्व का डॉक्युमेंटेशन नहीं हो पाया। भारत के सबसे पुराने जीवित और सक्रिय रंगसमूहों में से एक है लिटिल बैले ट्रूप। कठपुतलियों के से आंगिक में तैयार रामायण और पंचतंत्र पर एकाग्र उस समूह के नाटकों ने पिछले सत्तर-अस्सी साल के सफर में लगभग सभी देशों में अपनी कीर्ति का परचम लहराया है।
महान नर्तक उदयशंकर, शांतिवर्धन, प्रभात कुमार गांगुली और गुलवर्धन जैसे कालजयी कलाकारों की सामूहिक रचनाशीलता से तैयार यह प्रस्तुतियां आज के दर्शक को भी अपनी ताजगी और नयेपन से हैरत में डाल देती हैं। पूरी पीढ़ी बदल गई, मूल नाटक का साउंडट्रैक, वेषभूषा और अप्रतिम देहभाषा यथावत है। यह रंगसमूह भोपाल में है। आज की तारीख में नाटक की दुनिया में कदम रखने वाले नौजवान को इस समूह के बारे में क्या पता है? उस समूह ने जो चीज खोजी और पूरे विश्व को दी, उसके बारे में हमें क्या मालूम है ? एक दिन यह समूह और उसके अनोखे नाटक नहीं रहेंगे।
हिंदीपट्टी का अभिषेक करने वाले इन नाटकों के साथ ख़ुद हिंदीपट्टी ही क्या कृतघ्नों की तरह पेश नहीं आ रही है? अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों का जिक्र बहुत होता है. लिटिल बैले का रामायण और क्या है? क्या इस महान कृति पर एक बढिय़ा किताब नहीं लिखी जानी चाहिए थी? आखिर, लिटिल बैले ने गुरबत के उस दौर में भारतीय स्वाभिमान की झांकी दुनिया को दिखलाई है, जब स्वयं भारत सरकार के पास इस समूह को देने के लिए न पैसे थे, न संसाधन।
युवाओं में थियेटर का जुनून कम, फिल्मों और टीवी का जुनून है ज्यादा
युवा निर्देशक और फिल्म स्क्रिप्ट राइटर रवि भूषण कुमार कहते हैं कि थियेटर यानी रंगमंच...यह एक ऐसा माध्यम है, जिसके मंच पर हम जिंदगी के सभी रंग जीते हैं। थियेटर से युवा जुड़ रहे हैं, लेकिन आज के 4जी और 5जी इंटरनेट लाइफ की तरह सबकुछ तेजी से हासिल करना चाहते हैं। सबसे बड़ी यह कि आज के युवा थियेटर को ग्लैमर की दुनिया का पहला कदम समझ कर उसमें आते हैं। ऐसे युवाओं में थियेटर का जुनून कम, फिल्मों और टीवी का जुनून ज्यादा होता है। रवि भूषण की लिखी फिल्म गंध फिल्मफेयर अवार्ड-2019 में शॉट फिल्म में चयनित हुई है।