भारत में क्यों एक के बाद एक बंद रही हैं एयरलाइंस, पढ़िए- चौंकाने वाली यह स्पेशल रिपोर्ट

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ओपन स्काई नीति लागू होने के साथ ही पिछले दस वर्षों में भारतीय एयरलाइन उद्योग का चमत्कारिक ढंग से विकास हुआ है।...

नई दिल्ली:-एक तरफ जहां हवाई सेवा पर लोगों की निर्भरता बढ़ती जा रही है, वहीं भारतीय एयरलाइन उद्योग इन दिनों मुश्किलों के दौर से गुजर रहा है। यह संकट लंबे समय से रहा है और बीते एक-डेढ़ दशक के दौरान कई एयरलाइन्स बंद हो चुकी हैं, लेकिन, हाल के दिनों में इनके बीच होड़ से सबसे ज्यादा बेड़ा गर्क किया है। एक तरफ तो आमदनी के मुकाबले लागत बढ़ती जा रही है।

जबकि दूसरी तरफ मार्जिन दिन पर दिन सिकुड़ते जा रहे हैं। ऐसे में घटते किरायों के बीच विमान बेडे बढ़ाने की होड़ ने एयरलाइनों को कहीं का नहीं छोड़ा है। उनकी एकमात्र उम्मीद सरकार से है, जो करों में कटौती कर उन्हें राहत दे सकती है। लेकिन एयरपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर का विस्तार करने और हवाई यात्रा को आम आदमी की पहुंच में लाने की चुनौतियों में उलझी सरकार के लिए ऐसा करना संभव नहीं है। ये स्थिति अकेले भारत की नहीं है। दुनिया भर में एयरलाइनों के समक्ष इसी प्रकार की चुनौतियां हैं।

महत्वाकांक्षी विस्तार योजनाएं
ओपन स्काई नीति लागू होने के साथ ही पिछले दस वर्षो में भारतीय एयरलाइन उद्योग का चमत्कारिक ढंग से विकास हुआ है। उद्योग की निगाह 'आयटा' के उस अनुमान पर है जिसमें अगले बीस वर्षो में विमान यात्रियों की संख्या दोगुनी होने तथा 2034 तक 7.3 अरब होने की भविष्यवाणी की गई है। इन आंकड़ों ने दुनिया भर की एयरलाइनों के साथ भारतीय एयरलाइनों को भी विस्तार के लिए प्रेरित किया। उन्होंने भी भविष्य के लिए बड़ी-बड़ी योजनाएं बना डालीं और उन्हें अमली जामा पहनाने की हड़बड़ी में कई गलत फैसले कर बैठीं।

विमानों की अंधाधुंध खरीद 
ज्यादा से ज्यादा यात्री ढोने के चक्कर में उन्होंने एक तरफ तो धड़ाधड़ किराये घटाये, जबकि दूसरी तरफ बोइंग और एयरबस के साथ विमानों की खरीद के बड़े-बड़े सौदे कर लिए। बिना ये सोचे कि जब तक इन विमानों की डिलीवरी मिलेगी, बाजार और खुद उस एयरलाइन की स्थिति कैसी होगी। आज की तारीख में भारतीय एयरलाइनों ने 800 विमानों के खरबों के आर्डर दे रखे हैं। जबकि दर्जनों विमान लीज पर ले रखे हैं। इनके कर्ज पर ब्याज और लीज रेंट अदा करने का दबाव अब इनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है।

किरायों में कमी
लो कॉस्ट एयरलाइनों से मुकाबला करने के लिए नियमित एयरलाइनों ने सामान्य मांग वाले महीनो में किरायों में जमकर कमी करती हैं और तरह-तरह के ऑफर देती हैं। ये सोचकर कि मांग वाले महीनों में किराये बढ़ाकर इसकी भरपाई कर देंगी, लेकिन ऐसा होता नहीं है। जब किराये अनापशनाप बढ़ाए जाते हैं तो यात्री घट जाते हैं और दूसरे रेल व रोड के साधन अपनाने लगते हैं। नतीजतन, नुकसान प्राय: वहीं का वहीं रहता है। दूसरी ओर विकसित देशों की एयरलाइने किरायों के साथ ज्यादा समझौता करना पसंद नहीं करतीं। वे लाभ में रहकर व ग्राहकों को बेहतर सेवाएं और सुविधाएं देकर बिजनेस बढ़ाना पसंद करती हैं।

ईंधन, रख रखाव पर अधिक खर्च
इस सबके बावजूद कुछ मामलों में भारतीय एयरलाइने वैश्विक एयरलाइनों के मुकाबले नुकसान की स्थिति में हैं। भारत में एटीएफ की कीमतें सर्वाधिक हैं। क्रूड के दाम घटने पर पेट्रोल, डीजल तो सस्ता हो जाता है, लेकिन राज्यों में लगने वाले बिक्रीकर के कारण एटीएफ के दाम उस हिसाब से कम नहीं होते। आम तौर पर एटीएफ पर बिक्रीकर की दर 25 फीसद है। लेकिन कुछ राज्य सरकारें 30 फीसद तक वसूल रही हैं। वैश्विक स्तर पर एयरलाइनों की कुल लागत में एटीएफ का हिस्सा अधिकतम 30 फीसद है। लेकिन भारत में ये 40 फीसद बैठता है। इसी तरह भारत में जिस तरह एयरपोर्ट आपरेटर इंफ्रास्ट्रक्चर विस्तार का खर्च एयरलाइनों पर डालते हैं, वैसा अन्य किसी देश में नहीं होता।

प्रशिक्षण पर बढ़ता खर्च
इसके अलावा भी कई चीजें हैं जिनसे भारतीय एयरलाइनों की लागत बढ़ती हैं। जिनमें हवाई अड्डों पर बढ़ता कंजेशन, रखरखाव और मरम्मत (एमआरओ) तथा विमानन सुरक्षा पर बढ़ती सख्ती के कारण पायलटों के नियमित प्रशिक्षण पर अतिरिक्त खर्च शामिल हैं।

बढ़ते नॉन-शिड्यूल्ड ऑपरेटर्स
पांच वर्ष पहले तक देश में 12 बड़ी या शिड्यूल्ड और 28 छोटी या नॉन-शिड्यूल्ड एयरलाइनें हुआ करती थीं। अब शिड्यूल्ड एयरलाइनें तो 28 ही हुई हैं। लेकिन नॉन-शिड्यूल्ड एयरलाइनों की संख्या 106 पर पहुंच गई है। बड़ी एयरलाइनों को इनसे भी मुकाबला करना पड़ रहा है।

सरकार जिम्मेदार नहीं
इन हालात में जाहिर है कि वे ही एयरलाइने मुकाबले में टिकेंगी जिन्होंने अपेक्षाकृत बेहतर बेड़े के साथ शुरू से ही लागतों को काबू में रखा। चुनौतियों के बावजूद इंडिगो अब भी इसीलिए आगे है। विस्तारा भी बेहतर स्थिति में है। जबकि किंगफिशर की भांति जेट एयरवेज पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। लो कॉस्ट एयरलाइनों में भी गो एयर की हालत खस्ता है। जबकि एक बार डूबकर दुबारा खड़ी हुई स्पाइसजेट के सामने नई चुनौतियां दिखाई दे रही हैं।

एयर इंडिया के पूर्व कार्यकारी निदेशक और विमानन विशेषज्ञ जितेंद्र भार्गव के मुताबिक अपनी हालत के लिए भारतीय एयरलाइनें खुद जिम्मेदार हैं। इसमें सरकार का क्या दोष है। उसने तो आम आदमी के लिए सस्ती हवाई यात्रा का मार्ग प्रशस्त करके अपना सामाजिक दायित्व निभाया है। शीर्ष पर पहुंचने और बाजार हथियाने की होड़ में एयरलाइनों ने स्वयं जानबूझकर उद्योग की सच्चाइयों से आंखें मूंदे रखीं।

भारतीय एयरलाइनों के समान वैश्विक स्तर पर भी एयरलाइनों को उन्हीं चुनौतियों से जूझना पड़ रहा है। ऊंचे एयरपोर्ट शुल्कों से यूरोप, अमेरिका की एयरलाइने भी पीड़ित हैं। इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन (आयटा) के महानिदेशक और सीईओ अलेक्जेंडर डी जूनियक के मुताबिक दुनिया भर में एयरलाइने विमानों की नासमझ खरीद के फैसलों से जूझ रही हैं। लाभ मार्जिन उनका भी घट रहा है। लेकिन भारत जैसी होड़ नहीं है।

 

भारतीय एयरलाइनों की मुश्किलों के मुख्य कारण इस प्रकार हैं :

  • बाजार का सही आकलन न कर पाना
  • बढ़ती लागतों की अनदेखी
  • यात्री संख्या बढ़ाने को किरायों में कमी
  • विमानों के अविवेकपूर्ण सौदे
  • ब्याज और लीज रेंट का बढ़ता बोझ
  • एयरपोर्ट, पार्किंग शुल्क में बढ़ोतरी
  • महंगा एटीएफ, ऊंचा बिक्रीकर
  • पायलट, इंजीनियरों पर अधिक खर्च
  • नॉन शिड्यूल्ड आपरेटर्स से मुकाबला
  • सुरक्षा सख्ती से प्रशिक्षण पर अधिक खर्च
  • यातायात के बेहतर वैकल्पिक साधन

अंतरराष्ट्रीय एयरलाइन जो संकट के दौर से गुजर रही हैं

 

कोरियन एअरलाइन, रायल जार्डेनियिन, पाकिस्तान एयरलाइन, डेल्टा एअरलाइन आदि।

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