RGA न्यूज़ गोरखपुर समाचार
1990 के अयोध्या आंदोलन में घायल हुए कारसेवकों की जुबानी सुनिए उस दिन अयोध्या में क्या हुआ था। ...
गोरखपुर:- उधर राम मंदिर आंदोलन को मंजिल मिलने जा रही, इधर आंदोलन से जुड़े लोगों को उससे जुड़े संघर्षों की कहानी याद आ रही। ऐसी एक कहानी सुना रहे हैं रामभक्त संजय मद्धेशिया और हीरा यादव। इन लोगों ने कारसेवकों पर पुलिसिया बर्बरता का जो खौफनाक मंजर अपनी आंखों से देखा था, उसकी दास्तां सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।
संजय और हीरा बताते हैं कि 30 अक्टूबर 1990 के शिलान्यास आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए वह नौ साथियों (राजू अग्रहरी, गिरधारी, महेश गर्ग, प्रवीण आदि) के साथ 24 अक्टूबर को साइकिल से अयोध्या के लिए निकले। बस्ती पहुंचते-पहुंचते और साथी मिलते गए और संख्या 100 से अधिक हो गई। रूकते-छिपते सभी लोग लालगंज, कप्तानगंज, महराजगंज, बस्ती होते हुए विक्रमजोत के करीब एक गांव में पहुंचे, जहां हजारों की संख्या में जगह-जगह से आए कारसेवक पहले से इकट्ठा थे। रात वहीं ठहरने के बाद नदी पार करते हुए छिप-छिप कर 29 की रात को हनुमानगढ़ी से सात किलोमीटर की दूरी पर उन्होंने अपना पढ़ाव बनाया और फिर रातभर वहीं टहलते हुए गुजारा। 30 की सुबह हनुमानगढ़ी पहुंचे, जिसके सामने अशोक सिंघल धरना दे रहे थे। संजय और उनके साथी अभी धरने में शामिल होने के लिए प्रयास कर ही रहे थे कि पुलिस ने लाठी-चार्ज शुरू कर दिया और सिंघल जी का सिर फट गया। फिर तो कारसेवकों का गूस्सा फूट पड़ा। स्थिति बेकाबू हो गई।
कनक भवन के सामने लगातार हुई फायरिंग
बकौल संजय लाठी-चार्ज के दौरान ही पुलिस ने उन्हें और साथी कारसेवकों को गिरफ्तार कर एक बस में बैठा लिया। लेकिन उनमें से एक कारसेवक जो बस चलाना जानते थे, उन्होंने ड्राइवर को हटाया और बस लेकर कनक भवन पहुंच गए। वहां पैरा-मिलिट्री फोर्स के जवान लगातार फायरिंग कर रहे थे। आंखों के सामने ही करीब एक दर्जन कारसेवक गोलियों का शिकार हो गए। चार का शव खींचकर कारसेवक कनक भवन भी लाए।
रक्षक की जगह भक्षक बन गई थी पुलिस
संजय बताते हैं कि जब कुछ लोग विवादित ढांचे की ओर बढ़े तो पुलिस ने वहां भी फायरिंग शुरू कर दी। मंदिरों में घुस-घुसकर गोलियां चलाई जा रही थीं। जहां गोलियां नहीं चलीं, वहां लाठियां बरसाई जा रही थीं। बकौल संजय बहुत भयावह दृश्य था वह। पुलिस रक्षक नहीं भक्षक नजर आ रही थी। ब्रिटिश हुकूमत सी बर्बरता देख सभी हतप्रभ थे। किसी को इसकी उम्मीद तक नहीं थी। बाद में किसी तरह प्राण बचाकर लोग वहां से भागे। संजय और उनके साथी साइकिल से गांव-गांव, पगडंडी-पगडंडी होते हुए एक नवंबर को किसी तरह गोरखपुर पहुंचे।