क्या वाकई निराधार है आधार?

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RGA News

मिशि चौधरी

सॉफ्टवेयर फ्रीडम लॉ सेंटर की क़ानूनी निदेशक

इस नंबर के ज़रिए निजी और सरकारी लेनदेन के लिए किसी व्यक्ति की पहचान की पुष्टि की जाती है। इसके लिए व्यक्ति अपना आधार नंबर बताता है। इसके बाद एक सरकारी डेटाबेस में रखी गई जानकारी (जैसे, फेशियल रेकग्निशन या फिंगरप्रिंट) से इस नंबर का मिलान किया जाता है।मौजूदा वक़्त में आधार दुनिया की सबसे महत्वाकांक्षी "एक नंबर, एक पहचान" प्रणाली है जिसके तहत किसी व्यक्ति की पहचान उससे जुड़ी सामाजिक, बायोमेट्रिक और जीनोम संबंधी जानकारी के ज़रिए एक नंबर से की जाती है. इस नंबर को "आधार नंबर" कहा जाता है और ये सरकार जारी करती है।

जैसा कि नाम से ही पता चलता है कि नागरिकों को सरकारी और निजी सेवाएं देने के लिए ये जानकारियों का एक अनमोल ज़खीरा बन सकता है।

लेकिन अगर ये एक अनूठी तकनीकी पहल है तो इसकी बड़े पैमाने पर आलोचना क्यों हो रही है? और तकनीकी रूप से अधिकतर विकसित देश क्यों अपने नागरिकों के बारे में जानकारी इकट्ठा करने के लिए इसे अपनाने की बात करते नहीं दिखते?

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कई देशों में नहीं है ऐसी व्यवस्था

यूरोप और उत्तर अमरीका के कई विकसित देशों में तकनीक के क्षेत्र में काम करने वाले कंप्यूटर वैज्ञानिक, नीतियां बनाने वाले और उनकी वकालत करने वाले प्रत्येक काम के लिए "एक नंबर-एक पहचान" को बेहतर नहीं मानते।

साल 2016 में ब्रिटेन ने लोगों के बायोमेट्रिक जानकारी के आधार पर बनी राष्ट्रीय बायोमेट्रिक पहचान पत्र योजना को छोड़ दिया था. इसराइल ने स्मार्टकार्ड पहचान प्रणाली अपनाई है जिसमें फिंगरप्रिंट की जानकारी नहीं रखी जाती। इसके लिए जो डेटा रखा जाता है वो सेंट्रलाइज़्ड डेटाबेस में नहीं रखा जाता बल्कि वो केवल कार्ड पर ही रहता है। अमरीका इस तरह की किसी योजना पर अमल नहीं करता। यहां केवल कोलोरैडो और कैलिफोर्निया दो ऐसे राज्य हैं जहां ड्राइविंग लाइसेंस के लिए फिंगरप्रिंट लिए जाते है।

इनमें से अधिकतर देशों में पर्यटकों के संबंध में जानकारी इकट्ठा की जाती है लेकिन नागरिकों के बारे में जानकारी इकट्ठा नहीं की जाती. बैंक खातों और मतदाता पंजीकरण को बायोमेट्रिक जानकारी से जोड़ने का ट्रेंड केवल चीन, अफ्रीका के कुछ देशों, वेनेज़ुएला, इराक़ और फिलीपींस में देखा जाता है।

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सुरक्षा संबंधी मुद्दे

सरकार के नियंत्रण में बायोमेट्रिक और जीनोम संबंधी डेटा रखने वाले सेंट्रालाइज़्ड डेटाबेस के साथ कई ख़तरे जुड़े होते हैं. अगर किसी कारण से कभी डेटाबेस हैक या लीक हो जाता है, इससे होने वाले नुक़सान की भरपाई कभी नहीं की जा सकती।

ऐसा इसलिए क्योंकि वर्णों और नंबरों से बनी जानकारी तो आप बदल सकते हैं लेकिन लीक होने की सूरत में अपने फिंगरप्रिंट या जीनोम संबंधी जानकारी आप नहीं बदल सकते।

सरकार की ओर से इस तरह की घोषणा कि उनका डेटाबेस सुरक्षित हैं और उसमें सेंधमारी कभी नहीं हो सकती, स्वाभाविक रूप से अविश्वसनीय है। कोई भी सरकार ऐसी बहस नहीं कर सकती कि बाढ़ राहत कार्यक्रम या सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली मौसम या बीमारी के दबाव के कारण फेल नहीं हो सकती। किसी नीति का उद्देश्य जोखिम को ध्यान में रखकर बनाया जाता है, ना कि जोखिम को ख़त्म करने के लिए किया जाता है।

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राष्ट्रीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण के मामले में हम देख रहे हैं कि बग और कमज़ोरियों को दुरुस्त करने के लिए तकनीकी उद्योग जगत के पारंपरिक सुरक्षा उपायों को नहीं अपनाया गया है।

लेकिन हम देख रहे हैं कि इस मामले में आधार के बारे में खुलासा करने वालों को निशाना बनाया जा रहा है और निजता और सुरक्षा के मुद्दों को नज़रअंदाज़ करते हुए आधार के फायदों के बारे में बढ़-चढ़ कर बताया जा रहा है।

क्या देश रखेगा आप पर नज़र?

अगर सरकार नागरिकों पर नज़र रखने के लिए या किसी एक व्यक्ति के ख़िलाफ़ उसके संबंध में डेटाबेस में मौजूद जानकारी का दुरुपयोग करना चाहे तो ऐसी स्थिति रोका नहीं जा सकता।

जो व्यक्ति इस डेटाबेस के लिए अपनी जानकारी दे रहा है वो जीवनभर के लिए दांव लगा रहा है कि उसकी सरकार कभी भी सर्वसत्तात्मक और अलोकतांत्रिक नहीं बनेगी. और वो ये भी मानता है कि उसका कभी उत्पीड़न नहीं होगा।

ये केवल सैद्धांतिक स्तर पर या इनोवेशन-विरोधी कार्यकर्ताओं की चिंता नहीं है बल्कि चीन जैसे देश पहले ही इसमें माहिर हो चुके हैं।

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चीन का उदाहरण

चीन के शिन्ज़ियांग इलाके में सरकारी नियंत्रण बेहद कड़े माने जाते है. यहां 12 से 65 साल के लोगों के डीएनए के नमूने, फिंगरप्रिंट, आंखों की पुतलियां और ख़ून के नमूने सरकार ने लिए हैं। इस जानकारी को नागरिकों के हुकू यानी घरेलू रजिस्ट्रेशन कार्ड्स के साथ जोड़ दिया गया. ये व्यवस्था अब शिक्षा संस्थानों, चिकित्सा और घर के लाभों तक लोगों की पहुंच को सीमित करती है।

इसके साथ चेहरे की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर, सीसीटीवी कैमरे और बायोमेट्रिक डेटाबेस जोड़कर इसे तकनीक के इस्तेमाल से नागरिकों पर नियंत्रण करने के एक शानदार उदाहरण के रूप में पेश किया जा रहा है।

ऑन्ग्रिड जैसी कंपनियां किसी को किसी भी नागरिक के बारे में निजी जानकारी मुहैया करा सकती हैं। इस तरह की सेवा ही इस डर की पुष्टि करती है कि लोगों के डेटा का दुरुपयोग किया जाना संभव है।

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आधार का भविष्य क्या होगा?

सेंट्रलाइज़्ड डेटाबेस पर बड़ी मुसीबत पड़ जाए को स्थिति को संभालना मुश्किल हो सकता है। साथ ही सामान्य कामकाज में भी पेश आने वाली समस्या मामूली नहीं होती।

यदि किसी साधारण लेनदेन को इस प्रणाली के तहत "सुरक्षित" प्रमाणित कर दिया गया है तो विक्रेता अगर व्यक्ति से छिपा कर उसका आधार नंबर रख लेता है और साथ ही उसका बायोमेट्रिक डेटा भी जुटा लेता है तो वो भविष्य में व्यक्ति की जानकारी के बिना कोई भी लेनदेन आसानी से कर सकता है।

उदाहरण के तौर पर दुकानों में इस्तेमाल करने के लिए बने सस्ते फिंगरप्रिंट मशीन में बदलाव कर उसे ऐसा बनाया जा सकता है कि वो दिखाए जाने वाले सभी अंगूठे के निशानों को याद रखे। ऐसे भी कई उदाहरण हैं जहां पहचान प्रमाणित ना होने के कारण कई लोगों को पेंशन और राशन नहीं मिल पा रहा है। इस तरह के मामले देश के कई हिस्सों में देखने को मिल रहे हैं।आधार के कारण विकलांग को नहीं मिल रहा राशन डेटा आधारित इनोवेशन" के तहत एक जगह पर मौजूद जानकारी के संबंध में कईयों का मानना है कि ये केवल "शुरुआती समस्याएं" है, लेकिन जैसे-जैसे ये व्यवस्था दुरुस्त होगी पहचान से जुड़े धोखाधड़ी के मामले कम होंगे और भ्रष्टाचार पर रोक लगेगी।

लेकिन कई लोगों के लिए ये अस्तित्व का सवाल है ,ख़ास तौर पर सब्सिडी वाले अनाज और राशन के लिए आधार पर निर्भर करने वालों के लिए। जबकि इस बड़ी योजना का मूल उद्देश्य यही बताया गया था कि इससे वितरण की प्रणाली बेहतर होगी।

इन्हीं कारणों से यूरोप और उत्तर-अमरीका में तकनीक के जानकार और नीति बनाने वाले ऐसे उपाय पसंद करते हैं जिसमें व्यक्ति की पहचान के संबंध में पूरी जानकारी एक ही जगह पर ना मुहैया कराई जाए।

उनके अनुसार विकेन्द्रीकृत तरीके के तहत किसी व्यक्ति की संभावित पहचान कायम करने के लिए डेटा के कई स्रोतों की मदद ली जाती है और वहां से मिली जानकारी का मिलान किया जाता है।

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इसका मतलब ये है कि किसी की पहचान की पुष्टि करने के लिए केवल एक ही तरीके या डेटाबेस पर निर्भर न रहकर इसके लिए कई तरीकों का इस्तेमाल किया जाए। इससे डेटा में सेंधमारी के जोखिम का ख़तरा भी कम होता है जो कि एक डेटाबेस में डेटा रहने से बढ़ जाता है।

भारत में फिलहाल सर्वोच्च न्यायालय, आधार नंबर को चुनौती देने वाली कई याचिकाओं की सुनवाई कर रही है। इससे पहले अदालत ने अंतरिम आदेश के ज़रिए कहा था कि आधार को अनिवार्य नहीं किया जा सकता। कोर्ट कई सरकारी सेवाओं के लिए आधार को अनिवार्य करने संबंधी कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है।

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सामने खड़ी इस चुनौती पर सभी को अदालत के फ़ैसले का इंतज़ार है।

उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट इस गणतंत्र में नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करते हुए दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों के लिए एक उदाहरण पेश करेगी।

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