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दिल्ली में सरकार बनाने का रास्ता उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल से होकर गुजरता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुल 40 संसदीय सीटें है। इन पर कब्जा पाने के लिए राजनीतिक दलों में जंग देखी गई।...
नई दिल्ली:-केंद्र की सत्ता पर काबिज होने का रास्ता उत्तर प्रदेश के पूर्वाचल से होकर गुजरता है। इसी के मद्देनजर सभी राजनीतिक दलों को अपनी सियासी ताकत बढ़ाने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेश की तीन दर्जन से अधिक संसदीय सीटों की सख्त दरकार होती है। पूर्वाचल की विभिन्न सीटों पर राजनीतिक पार्टियों ने अपने दिग्गजों को उतार कर इसे और अहम बना दिया है। यह चुनाव इस बार जातीय व सांप्रदायिक गोलबंदी में जकड़े पूर्वाचल को नई दिशा दे सकता है।
पूर्वांचल के प्रवेश द्वार फैजाबाद (अयोध्या) से शुरू होकर लखनऊ, गोरखपुर, आजमगढ़ और बनारस के रास्ते ही दिल्ली पहुंचने का सफर पूरा होता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुल 40 संसदीय सीटें है, जिन पर कब्जा पाने के लिए राजनीतिक दलों में बीच विकट सियासी जंग जारी रहती है। पुश्तैनी विरासत बचाने के लिए गांधी परिवार अमेठी, रायबरेली और सुल्तानपुर के चुनावी मैदान में है। अमेठी में राहुल गांधी, रायबरेली में सोनिया गांधी और सुल्तानपुर से मेनका गांधी ने चुनाव लड़ा है।
जबकि लखनऊ से भाजपा के वरिष्ठ नेता व गृहमंत्री राजनाथ सिंह चुनाव मैदान में हैं, जबकि सपा-बसपा गठबंधन से पूर्व फिल्म नायिका पूनम सिन्हा मैदान में हैं। आजमगढ़ से सपा-बसपा गठबंधन के साझा प्रत्याशी अखिलेश यादव हैं, जबकि उनके खिलाफ भाजपा ने भोजपुरी गायक व हीरो दिनेश लाल उर्फ निरहुआ को उतारा है। गोरखपुर संसदीय सीट खुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रतिष्ठा का सवाल बन चुकी है। मतदाताओं को लुभाने के लिए सपा-बसपा गठबंधन और कांग्रेस के बीच की कड़वाहट भी जमकर उभरी।
इसके चलते कांग्रेस ने कई जगह पर वोट काटने वाले प्रत्याशी उतारे, जिसका खामियाजा गठबंधन को उठाना पड़ सकता है। पूर्वाचल से लगी नेपाल की सीमाई सीटों पर सांप्रदायिक तनातनी का भी माहौल चुनाव को प्रभावित करेगा। इसी तरह आखिरी दो चरणों के चुनाव वाले संसदीय क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी की ओर से उतारे गये प्रत्याशी कमजोर साबित हो सकते हैं। इनमें मिर्जापुर, चंदौली, गाजीपुर, महराजगंज प्रमुख हैं।
बनारस में पहले शालिनी यादव को टिकट देना फिर नकारना और मजबूरी में फिर घोषित करना उनके प्रतिबद्ध वोटरों को बहुत बुरा लगा। खासतौर से यादव नेताओं ने इसकी खुलकर आलोचना भी की, जिसका खामियाजा उन्हें इन सभी सीटों पर उठाना पड़ सकता है। समझौते में जिन सीटों पर बसपा ने प्रत्याशी उतारे, वहां सपा के टिकट के दावेदारों का असंतोष उभरा है। उन्होंने चुनाव में खुलकर भाग नहीं लिया, जिसका कुप्रभाव चुनाव नतीजों पर दिख सकता है।
उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा जहां राष्ट्रीय मुद्दे उठा रही थी, वहीं सपा-बसपा गठबंधन स्थानीय मसले उठाकर भाजपा को घेर रही थी। हालांकि चुनाव के छठवें व सातवें चरण का चुनाव आते-आते प्रचार बेहद कड़वा हो गया।